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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
तन्तुवायशाला थी, वहाँ आया । उस के एक भाग में यथायोग्य अवग्रह करक मै वर्षावास के लिए रहा । हे गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण (तप) स्वीकार करके कालयापन कले लगा । उस समय वह मंखलिपुत्र गौसालक चित्रफलक हाथ में लिये हुए मंखपन से आजीविका करता हुआ क्रमशः विचरण करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, राजगृह नगर में नालंदा पाड़ा के बाहरी भाग में, जहाँ तन्तुवायशाला थी, वहाँ आया । तन्तुवायशाला के एक भाग में उसने अपना भाण्डोपकरण रखा । राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुल में भिक्षाटन करते हुए उसने वर्षावास के लिए दूसरा स्थान ढूंढने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु उसे अन्यत्र कहीं भी निवासस्थान नहीं मिला, तब उसी तन्तुवायशाला के एक भाग में, हे गौतम ! जहाँ मैं रहा हुआ था, वहीं, वह भी वर्षावास के लिए रहने लगा।
तदनन्तर, हे गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण के पारणे के दिन तन्तुवायशाला से निकला और फिर नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होता हुआ राजगृह नगर में आया । वहाँ ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षाटन करते हुए मैंने विजय नामक गाथापति के घर में प्रवेश किया। उस समय विजयगाथापति मुझे आते हुए देख अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ 1 वह शीघ्र ही अपने सिंहासन से उठा और पादपीठ से नीचे उतरा । फिर उसने पैर से खड़ाऊँ निकाली । एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया । दोनों हाथ जोड़ कर सात-आठ कदम मेरे सम्मुख आया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया ! फिर वह ऐसा विचार करके अत्यन्त संतुष्ट हुआ कि मैं आज भगवान् को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप आहार से प्रतिला गा! वह प्रतिलाभ लेता हुआ भी संतुष्ट हो रहा था और प्रतिलामित होने के बाद भी सन्तुष्ट रहा । उस विजय गाथापति ने उस दान में द्रव्यशुद्धि से, दायक शुद्धि से और पात्रशुद्धि के कारण तथा तीन करण और कृत, कारित और अनुमोदित की शुद्धिपूर्वक मुझे प्रतिलाभित करने से उसने देव का आयुष्य-बन्ध किया, संसार परिमित किया । उसके घर में ये पांच दिव्य प्रादुर्भूत हुए, यथावसुधारा की वृष्टि, पांच वर्षों के फूलों की वृष्टि, ध्वजारूप वस्त्र की वृष्टि, देवदुन्दुभि का वादन और आकाश में 'अहो दानम्, अहो दानम्' की घोषणा ।
उस समय राजगृह नगर में श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क मार्गों यावत् राजमार्गों में बहुत-से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे कि हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति धन्य है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है, उभयलोक सार्थक हैं और विजय गाथापति का मनुष्य जन्म और जीवन रूप फल सुलब्ध है कि जिसके घर में तथारूप सौम्यरूप साधु को प्रतिलाभित करने से ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं । अतः विजय गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है । उसके दोनों लोक सार्थक हैं । विजय गाथापति का मानव जन्म एवं जीवन सफल है प्रशंसनीय है । उस अवसर पर मंखलिपुत्र गोशालक ने भी बहुत-से लोगों से यह बात सुनी और समझी । इससे उसके मन में पहले संशय और फिर कुतूहल उत्पन्न हुआ । वह विजय गाथापति के घर आया । बरसी हुई वसुधरा तथा पांच वर्ण के निष्पन्न कुसुम भी देखे । उसने मुझे भी विजय गाथापति के घर से बाहर निकलते हुए देखा । वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । फिर मेरे पास आकर उसने तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया । मुझसे बोला-'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका धर्मशिष्य हूँ ।' हे गौतम ! इस प्रकार मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात का आदर नहीं किया ।