Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 256
________________ भगवती- २५/-/२/८६७ २५५ भगवन् ! अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, अथवा जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं ? गौतम ! अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते । भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि यावत्- नहीं आते ? गौतम ! जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं । ग्रहण करके औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण- इन पांच शरीरों के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-इन पांच इन्द्रियों के रूप में, मनोयोग, वचनयोग और काययोग तथा श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणमते हैं । हे गौतम! इस कारण से ऐसा कहा जाता है । भगवन् ! अजीवद्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं अथवा नैरयिक अजीवद्रव्यों परिभोग में आते हैं ? गौतम ! अजीवद्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं, किन्तु नैरयिक, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते । भगवन् ! किस कारण से ? गौतम ! नैरयिक, अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं । ग्रहण करके वैक्रिय, तैजस, कार्मणशरीर के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा यावत् श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करते हैं । हे गौतम! इसी कारण से ऐसा कहा गया है । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना चाहिए । किन्तु विशेष यह है कि जिसके जितने शरीर, इन्द्रियां तथा योग हों, उतने यथायोग्य कहने चाहिए । [८६८] भगवन् ! असंख्य लोकाकाश में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं ? हाँ गौतम ! भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश में कितनी दिशाओं से आकर पुद्गल एकत्रित होते हैं ? गौतम ! निर्व्याघात से छहों दिशाओं से तथा व्याघात की अपेक्षा - कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से । भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश में एकत्रित पुद्गल कितनी दिशाओं से पृथक् होते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार स्कन्ध के रूप में पुद्गल उपचित होते हैं और अपचित होते हैं । [८६९] भगवन् ! जीव जिन पुद्गलद्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ? गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी । भगवन् ! (जीव) उन द्रव्यों को, द्रव्य से ग्रहण करता है या क्षेत्र से, काल से या भाव से ग्रहण करता है ? गौतम ! वह उन द्रव्यों को द्रव्य से यावत् भाव से भी ग्रहण करता है । द्रव्य से - वह अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को, क्षेत्र से - असंख्येय- प्रदेशावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, इत्यादि, प्रज्ञापनासूत्र के आहारउद्देशक अनुसार यहाँ भी यावत्- निर्व्याघात से छहों दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित् तीन कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से पुद्गलों को ग्रहण करता है । भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण करता है, तो क्या वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को ? गौतम ! पूर्ववत् । विशेष यह है कि जिन द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण करता है, वे नियम से छहों दिशाओं में आए हुए होते हैं । आहारकशरीर के विषय में भी इसी प्रकार समझना । भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को तैजसशरीर के रूप में ग्रहण करता है... ? गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं । शेष औदारिकशरीर के वक्तव्यतानुसार । कार्मणशरीर के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए, यावत् भाव से भी ग्रहण करता है । भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को द्रव्य से ग्रहण करता है, वे एक प्रदेश वाले ग्रहण करता

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