Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 286
________________ भगवती-२५/-/६/९३५ २८५ कदाचित् नहीं होते । यदि होते है तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्त्र पृथक्त्व होते हैं । भगवन् ! बकुश एक समय में कितने होते हैं ? गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा बकुश कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा बकुश जघन्य और उत्कृष्ट कोटिशतपृथक्त्व होते हैं । इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील जानना । __ भगवन् ! कषायकुशील एक समय में कितने होते हैं ? गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा कषायकुशील कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं भी होते । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्त्रपृथक्त्व होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा कषायकुशील जघन्य और उत्कृष्ट कोटिसहस्रपृथक्त्व होते हैं । भगवन् ! निर्ग्रन्थ ? गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट एक सौ बासठ होते हैं । उनमें से क्षपकश्रेणी वाले १०८ और उपशमश्रेणी वाले ५४, यों दोनों मिलाकर १६२ होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा निर्ग्रन्थ कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं । भगवन् ! स्नातक ? गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते । यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट एक सौ आठ होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा स्नातक जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व होते हैं । भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, इनमें से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े निर्ग्रन्थ हैं, उनसे पुलाक संख्यात-गुणे, उनसे स्नातक संख्यात-गुणे, उनसे बकुश संख्यात-गुणे, उनसे प्रतिसेवनाकुशील संख्यात-गुणे और उनसे कषायकुशील संख्यात-गुणे हैं । शतक-२५ उद्देशक-७ । [९३६] भगवन् ! संयत कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पांच, सामायिक-संयत, छेदोपस्थापनिक-संयत, परिहारविशुद्धि-संयत, सूक्ष्मसम्पराय-संयत और यथाख्यात-संयत । भगवन् ! सामायिक-संयत कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो, इत्वरिक और यावत्कथिक । भगवन् ! छेदोपस्थापनिक-संयत ? गौतम ! दो, सातिचार और निरतिचार । भगवन् ! परिहारविशुद्धिक-संयत ? गौतम ! दो, निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक । भगवन् ! सूक्ष्मसम्पराय-संयत ? गौतम ! दो, संक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक । भगवन् ! यथाख्यातसंयत ? गौतम ! दो, छद्मस्थ और केवली । - [९३७] सामायिक-चारित्र को अंगीकार करने के पश्चात् चातुर्याम-रूप अनुत्तर धर्म का जो मन, वचन और काया से त्रिविध पालन करता है, वह 'सामायिक-संयत' है । [९३८] प्राचीन पर्याय को छेद करके जो अपनी आत्मा को पंचमहाव्रत धर्म में स्थापित करता है, वह 'छेदोपस्थापनीय-संयत' कहलाता है । [९३९] जो पंचमहाव्रतरूप अनुत्तर धर्म को मन, वचन और काया से त्रिविध पालन करता हुआ आत्म-विशुद्धि धारण करता है, वह परिहारविशुद्धिक-संयत कहलाता है ।। [९४०] जो सूक्ष्म लोभ का वेदन करता हुआ उपशमक होता है, अथवा क्षपक होता

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