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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
प्राणातिपातिक्रिया करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं । भगवन् ! वह स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट की जाती है ? गौतम ! वह स्पृष्ट की जाती है, अस्पृष्ट नहीं की जाती; इत्यादि प्रथम शतक के छठे उद्देशक के अनुसार, 'वह क्रिया अनुक्रम से की जाती है, बिना अनुक्रम के नहीं', (तक) कहना । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । विशेषता यह है कि जीव और एकेन्द्रिय नियाघात की अपेक्षा से, छह दिसा से आए हुए और व्याघात की अपेक्षा से कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से आए हुए कर्म करते हैं । शेष सभी जीव छह दिशा से आए हुए कर्म करते हैं ।
भगवन् ! क्या जीव मृषावाद-क्रिया करते हैं ? हाँ, गौतम ! करते हैं । भगवन् ! वह क्रिया स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट की जाती है ? गौतम ! प्राणातिपात के दण्डक के समान मृषावाद-क्रिया का भी दण्डक कहना चाहिए । इसी प्रकार अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के विषय में भी जान लेना चाहिए । इस प्रकार पांच दण्डक हुए।
भगवन् ! जिस समय जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस समय वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया करते हैं ? गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से-'अनानुपूर्वीकृत नहीं की जाती है', (यहाँ तक) कहना चाहिए । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए । इसी प्रकार पारिग्रहिकी क्रिया तक कहना चाहिए । ये पूर्ववत् पांच दण्डक होते हैं । भगवन् ! जिस देश में जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस देश में वे स्पष्ट क्रिया करते हैं या अस्पष्ट क्रिया करते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् पारिग्रहिकी क्रिया तक जानना चाहिए । इसी प्रकार ये पांच दण्डक होते हैं । भगवन् ! जिस प्रदेश में जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस प्रदेश में स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया करते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् दण्डक कहना चाहिए । इस प्रकार पारिग्रहिकी क्रिया तक जानना चाहिए । यों ये सब मिला कर बीस दण्डक हुए ।
[७०७] भगवन् ! जीवों का दुःख आत्मकृत है, परकृत है, अथवा उभयकृत है ? गौतम ! (जीवों का) दुःख आत्मकृत है, परकृत नहीं और न उभयकृत है । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए । भगवन् ! जीव क्या आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख वेदते हैं, या उभयकृत दुःख वेदते हैं ? गौतम ! जीव आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख नहीं वेदते और न उभयकृत दुःख वेदते हैं । इसी प्रकार वैमानिक तक समझना चाहिए ।
भगवन् ! जीवों को जो वेदना होती है, वह आत्मकृत है, परकृत है अथवा उभयकृत है ? गौतम ! जीवों की वेदना आत्मकृत है, परकृत नहीं, और न उभयकृत है । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए | भगवन् ! जीव क्या आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परस्कृत वेदना वेदते हैं, अथवा उभयकृत वेदना वेदते हैं ? गौतम ! जीव आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परस्कृत वेदना नहीं वेदते और न उभयकृत वेदना वेदते हैं । इसी प्रकार वैमानिक तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-१७ उद्देशक-५ [७०८] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान की सुधर्मा सभा कहां कही है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त सम रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र और सूर्य का अतिक्रमण करके आगे जाने पर इत्यादि वर्णन...यावत् प्रज्ञापना सूत्र के