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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
तिर्यञ्चयोनिक की स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त की है और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम काल की है । (भव्य-द्रव्य-) मनुष्य की स्थिति भी इसी प्रकार है । (भव्य-द्रव्य-) वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव की स्थिति असुरकुमार के समान है । भगवन् ! यह इसी प्रकार है'।
शतक-१८ उद्देशक-१० [७५३] राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार तलवार की धार पर अथवा उस्तरे की धार पर रह सकता है ? हाँ, गौतम ! रह सकता है । (भगवन् !) क्या वह वहाँ छिन या भिन्न होता है ? (गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं । क्योंकि उस पर शस्त्र संक्रमण नहीं करता । इत्यादि सब पंचम शतक में कही हुई परमाणु-पुद्गल की वक्तव्यता, यावत्-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार उदकावर्त में यावत् प्रवेश करता है ? इत्यादि वहाँ शस्त्र संक्रमण नहीं करता, (तक कहना ।)
[७५४] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल, वायुकाय से स्पृष्ट है, अथवा वायुकाय परमाणुपुद्गल से स्पृष्ट है । गौतम ! परमाणु-पुद्गल वायुकाय से स्पृष्ट है, किन्तु वायुकाय परमाणुपुद्गल से स्पृष्ट नहीं है । भगवन् ! द्विप्रदेशिक-स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है या वायुकाय द्विप्रदेशिकस्कन्ध से स्पृष्ट है ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक जानना। भगवन् ! अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध के विषयमें प्रश्न- गौतम ! अनन्तप्रदेशी स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है तथा वायुकाय अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता ।
भगवन् ! वस्ति (मशक) वायुकाय से स्पृष्ट है, अथवा वायुकाय वस्ति से स्पृष्ट है ? गौतम ! वस्ति वायुकाय से स्पृष्ट है, किन्तु वायुकाय, वस्ति से स्पृष्ट नहीं है ।
[७५५] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे वर्ण से-काला, नीला, पीला, लाल और श्वेत, गन्ध से-सुगन्धित और दुर्गन्धित; रस से-तिक्त, कटुक कसैला, अम्ल और मधुर; तथा स्पर्श से-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष-इन बीस बोलों से युक्त द्रव्य क्या अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, यावत् अन्योन्य सम्बद्ध हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना चाहिए । भगवन् ! सौधर्मकल्प के नीचे वर्ण से-इत्यादि प्रश्न ? गौतम ! पूर्ववत् है । इसी प्रकार यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक जानना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
[७५६] उस काल उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था । वहाँ धुतिपलाश नाम का (चैत्य) था । उस वाणिज्यग्राम नगर में सोमिल ब्राह्मण रहता था । जो आढ्य यावत् अपराभूत था तथा ऋग्वेद यावत् अथर्ववेद, तथा शिक्षा, कल्प आदि वेदांगों में निष्णात था । वह पांच-सौ शिष्यों और अपने कुटुम्ब पर आधिपत्य करता हुआ यावत् सुखपूर्वक जीवनयापन करता था । उन्हीं दिनों में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् पधारे । यावत् परिषद् भगवान् की पर्युपासना करने लगी।
जब सोमिल ब्राह्मण को भगवान् महावीर स्वामी के आगमन की बात मालूम हुई तो उसके मन में इस प्रकार का यावत् विचार उत्पन्न हुआ-'पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए तथा ग्रामानुग्राम सुखपूर्वक पदार्पण करते हुए ज्ञातपुत्र श्रमण (महावीर) यावत् यहाँ आए हैं, अतः मैं श्रमण ज्ञातपुत्र के पास जाऊं और वहाँ जाकर इन और ऐसे अर्थ यावत् व्याकरण उनसे पूछू ।