Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 181
________________ १८० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद प्रकार के कहे गए हैं । यथा-द्रव्यमास और कालमास । उनमें से जो कालमास हैं, वे श्रावण से लेकर आषाढ़-मास-पर्यन्त बारह हैं, यथा-श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ । ये श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । द्रव्य-मास दो प्रकार का है । यथा-अर्थमाष और धान्यमाष । उनमें से अर्थमाष दो प्रकार का है यथा-स्वर्णमाष और रौप्यमाष । ये दोनों माष श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । धान्यमाष दो प्रकार का है-यथा-शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । इत्यादि सभी आलापक धन्य-सरिसव के समान कहने चाहिए, यावत् इसी कारण से हे सोमिल ! कहा गया है कि 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है । भगवन् ! आपके लिए 'कुलत्थ' भक्ष्य हैं अथवा अभक्ष्य हैं । सोमिल ! 'कुलत्थ' मेरे लिए भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं | भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि कुलत्थं...यावत् अभक्ष्य भी हैं ? सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मणनयों में कुलत्था दो प्रकार की कही गई हैं, यथा-स्त्रीकुलत्था और धान्यकुलत्था । स्त्रीकुलत्था तीन प्रकार की कही गई है, यथा-कुलवधू या कुलमाता, अथवा कुलकन्या । ये तीनों श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । उनमें से जो धान्यकुलत्था है, उसके सभी आलापक धान्य-सरिसव के समान हैं, यावत्-हे सोमिल ! इसीलिए कहा गया है कि 'धान्यकुलत्था भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है'। [७५७] भगवन् ! आप एक हैं, या दो हैं, अथवा अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं अथवा अनेक-भूत-भाव-भविक हैं ? सोमिल ! मैं एक भी हूँ, यावत् अनेक-भूत-भाव-भाविक भी हूँ । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? सोमिल ! मैं द्रव्यरूप से एक हूँ, ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से दो हूँ । आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित हूँ तथा उपयोग की दृष्टि से मैं अनेकभूत-भाव-भविक भी हूँ । हे सोमिल ! इसी दृष्टि से यावत् अनेकभूत-भाव-भविक भी हूँ । भगवान् की अमृतवाणी सुनकर वह सोमिल ब्राह्मण सम्बुद्ध हुआ । उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, यावत्-उसने कहा-भगवन् ! जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है । जिस प्रकार आप देवानुप्रिय के सान्निध्य में बहुत-से राजामहाराजा आदि, हिरण्यादि का त्याग करके मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होते हैं, उस प्रकार करने में मैं अभी समर्थ नहीं हूँ; यावत्-उसने बारह प्रकार के श्रावकधर्म को स्वीकार किया । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके यावत् अपने घर लौट गया । सोमिल ब्राह्मण श्रमणोपासक हो गया । अब वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता होकर यावत् विचरने लगा | गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके पूछा-क्या सोमिल ब्राह्मण आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ?' इत्यादि । शंख श्रमणोपासक के समान समग्र वर्णन, सर्वदुःखों का अन्त करेगा, (यहाँ तक कहना चाहिए ।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक-१८ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (शतक-१९) [७५८] उन्नीसवें शतक में ये दस उद्देशक हैं लेश्या, गर्भ, पृथ्वी, महाश्रव, चरम, द्वीप,

Loading...

Page Navigation
1 ... 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306