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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[७२४] भगवान् ! जीव, जीवभाव की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? गौतम ! चरम नहीं, अचरम है । भगवन् ! नैरयिक जीव, नैरयिकभाव की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? गौतम ! वह कदाचित् चरम है, और कदाचित अचरम है । इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए । सिद्ध का कथन जीव के समान जानना चाहिए । अनेक जीवों के विषय में चरमअचरम-सम्बन्धी प्रश्न ? गौतम ! वे चरम नहीं, अचरम हैं । नैरयिकजीव, नैरयिकभाव से चरम भी हैं, अचरम भी है । इसी प्रकार वैमानिक तक समझना चाहिए । सिद्धों का कथन जीवों के समान है ।
आहारकजीव सर्वत्र एकवचन से कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है । बहुवचन से आहारक चरम भी होते हैं और अचरम भी होते हैं । अनाहारक जीव और सिद्ध, भी चरम नहीं हैं, अचरम है । शेष स्थानों में (अनाहारक) आहारक जीव के समान जानना । भवसिद्धिकजीव, जीवपद में, चरम हैं, अचरम नहीं हैं । शेष स्थानों में आहारक के समान हैं । अभवसिद्धिक सर्वत्र चरम नहीं, अचरम हैं । नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव और सिद्ध, अभवसिद्धिक के समान हैं । संज्ञी जीव आहारक जीव के समान है । इसी प्रकार असंज्ञी भी (आहारक के समान हैं ।) नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवपद और सिद्धपद में अचरम है, मनुष्यपद में, चरम हैं । सलेश्यी, यावत् शुक्ललेश्यी की वक्तव्यता आहारकजीव के समान है । विशेष यह है कि जिसके जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए । अलेश्यी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान हैं ।
सम्यग्दृष्टि, अनाहारक के समान हैं । मिथ्यादृष्टि, आहारक के समान हैं । सम्यमिथ्यादृष्टि, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर (एकवचन से) कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं । बहुवचन से वे चरम भी हैं और अचरम भी हैं । संयत जीव और मनुष्य, आहारक के समान हैं । असंयत भी उसी प्रकार है । संयतासंयत भी उसी प्रकार है । विशेष यह है कि जिसका जो भाव हो, वह कहना चाहिए । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक के समान जानना चाहिए । सकषायी यावत् लोभकषायी, इन सभी स्थानों में, आहारक के समान हैं । अकषायी, जीवपद और सिद्धपद में, चरम नहीं अचरम हैं । मनुष्यपद में कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है।
ज्ञानी सर्वत्र सम्यग्दृष्टि के समान है । आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्यवज्ञानी आहारक के समान हैं । विशेष यह है कि जिसके जो ज्ञान हो, वह कहना चाहिए । केवलज्ञानी नोसंज्ञीनोअसंज्ञी के समान है । अज्ञानी, यावत् विभंगज्ञानी आहारक के समान है । सयोगी, यावत् काययोगी, आहारक के समान हैं । विशेष—जिसके जो योग हो, वह कहना चाहिए । अयोगी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान है । साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी अनाहारक के समान हैं । सवेदक, यावत् नपुंसकवेदक आहारक के समान है । अवेदक अकषायी के समान हैं ।
सशरीरी यावत् कार्मणशरीरी, आहारक के समान हैं । विशेष यह है कि जिसके जो शरीर हो, वह कहना चाहिए । अशरीरी के विषय में नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक के समान (कहना चाहिए ।) पांच पर्याप्तियों से पर्याप्तक और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्तक के विषय में आहारक के समान कहना चाहिए । सर्वत्र दण्डक, एकवचन और बहुवचन से कहने ।
[७२५] जो जीव, जिस भाव को पुनः प्राप्त करेगा, वह जीव उस भाव की अपेक्षा से 'अचरम' होता है; और जिस जीव का जिस भाव के साथ सर्वथा वियोग हो जाता है; वह जीव