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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
प्रफुल्लित हुए और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन- नमस्कार किया, फिर त्वरा, चपलता और उतावली से रहित हो कर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया गौतम स्वामी की तरह भगवान् महावीर स्वामी के पास आए, वन्दन - नमस्कार करके शालकोष्ठक उद्यान से निकले । फिर यावत् मेढिकग्राम नगर के मध्य भाग में हो कर रेवती गाथापत्नी के घर में प्रवेश किया । तदनन्तर रेवती गाथापत्नी
सिंह अनगार को ज्यों ही आते देखा, त्यों ही हर्षित एवं सन्तुष्ट होकर शीघ्र अपने आसन से उठी । सिंह अनगार के समक्ष सात-आठ कदम गई और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन - नमस्कार कर बोली- 'देवानुप्रिय ! कहिये, किस प्रयोजन से आपका पधारना हुआ ?' तब सिंह अनगार ने रेवती गाथापत्नी से कहा- हे देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर के लिए तुमने
कोह के दो फल संस्कारित करके तैयार किये हैं, उनसे प्रयोजन नहीं है, किन्तु मार्जार नामक वायु को शान्त करने वाला बिजौरापाक, जो कल का बनाया हुआ है, वह मुझे दो, उसी से प्रयोजन है।' इस पर रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार से कहा- हे सिंह अनगार ! ऐसे कौन ज्ञानी अथवा तपस्वी हैं, जिन्होंने मेरे अन्तर की यह रहस्यमय बात जान ली और आप से कह दी, जिससे कि आप यह जानते हैं ?' सिंह अनगार ने ( कहा - ) यावत् - 'भगवान् के कहने से मैं जाता हूँ ।'
तब सिंह अनगार से यह बात सुन कर एवं अवधारण करके वह रेवती गाथापत्नी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई । रसोईघर गई और बर्तन को लेकर सिंह अनगार के पास आई और सारा पाक सम्यक् प्रकार से डाल दिया । रेवती गाथापत्नी ने उस द्रव्यशुद्धि, दाता की शुद्धि एवं पात्र की शुद्धि से युक्त, यावत् प्रशस्त भावों से दिये गए दान से सिंह अनगार को प्रतिलाभित करने से देवायु का बन्ध किया यावत्- 'रेवती गाथापत्नी ने जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त किया, रेवती गाथापत्नी ने जन्म और जीवन सफल कर लिया ।' इसके पश्चात् वे सिंह अनगार, रेवती गाथापत्नी के घर से निकले और मेंढिकग्राम नगर के मध्य में से होते हुए भगवान् के पास पहुँचे और गौतम स्वामी के समान यावत् आहार- पानी दिखाया । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के हाथ में सम्यक् प्रकार से रख (दे) दिया ।
तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अमूर्च्छित यावत् लालसारहित बिल में सर्प- प्रवेश के समान उस आहार को शरीररूपी कोठे में डाल दिया । आहार करने के बाद वह महापीड़ाकारी रोगातंक शीघ्र ही शान्त हो गया । वे हृष्ट-पुष्ट, रोगरहित और शरीर से बलिष्ठ हो गए । इससे सभी श्रमण तुष्ट हुए, श्रमणियां तुष्ट हुईं, श्रावक तुष्ट हुए, श्राविकाएँ तुष्ट हुई, देव तुष्ट हुए, देवियाँ तुष्ट हुईं, और देव, मनुष्य एवं असुरों सहित समग्र लोक तुष्ट एवं हर्षित हो गया । ( कहने लगे - ) 'श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हुए ।'
[६५६ ] गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन - नमस्कार करके पूछा'भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी पूर्वदेश में उत्पन्न सर्वानुभूति नामक अनगार, जो कि प्रकृति भद्र यावत् विनीत था, और जिसे मंखलिपुत्र गोशालक ने अपने तप तेज से भस्म कर दिया था, वह मर कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? हे गौतम ! वह ऊपर चन्द्र और सूर्य का यावत् ब्रह्मलोक, लान्तक और महाशुक्र कल्प का अतिक्रमण कर सहस्त्रारकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है । वहां सर्वानुभूति देव की स्थिति अठारह सागरोपम की है । वह सर्वानुभूति देव उस देवलोक से आयुष्यक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने पर यावत् महाविदेह वर्ष में सिद्ध होगा यावत्