________________
१३६
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
यावत्-उत्तम केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न होगा । तदनन्तर (गोशालक का जीव) दृढ़प्रतिज्ञ केवली अतीत काल को उपयोगपूर्वक देखेंगे । अतीतकाल-निरीक्षण कर वे श्रमण-निर्ग्रन्थों को कहेंगे-हे आर्यो ! मैं आज से चिरकाल पहले गोशालक नामक मंखलिपुत्र था । मैंने श्रमणों की घात की थी । यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गया था । आर्यो ! उसी महापाप-मूलक मैं अनादि-अनन्त और दीर्घमार्ग वाले चारगतिरूप संसार-कान्तार में बारबार पर्यटन करता रहा । इसलिए हे आर्यो ! तुम में से कोई भी आचार्य-प्रत्यनीक, उपाध्याय-प्रत्यनीक आचार्य और उपाध्याय के अपयश करने वाले, अवर्णवाद करने वाले और अकीर्ति करने वाले मत होना और संसाराटवी में परिभ्रमण मत करना । उस समय दृढ़प्रतिज्ञ केवली से यह बात सुनकर और अवधारण कर वे श्रमणनिर्ग्रन्थ भयभीत होंगे, त्रस्त होंगे, और संसार के भय से उद्विग्न होकर दृढ़प्रतिज्ञ केवली को वन्दन-नमस्कार करेंगे । वे उस स्थान की आलोचना और निन्दना करेंगे यावत् तपश्चरण स्वीकार करेंगे।
दृढ़प्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवलज्ञानी-पर्याय का पालन करेंगे, अंतमे भक्तप्रत्याख्यान करेंगे यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेंगे । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक-१५ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
शतक-१६ [६६०] सोलहवें शतक में चौदह उद्देशक हैं । यथा-अधिकरणी, जरा, कर्म, यावतीय, गंगदत्त, स्वप्न, उपयोग, लोक, बलि, अवधि, द्वीप, उदधि, दिशा और स्तनित ।
| शतक-१६ उद्देशक-१ | [६६१] उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या अधिकरणीय पर (हथौड़ा मारते समय) वायुकाय उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! होता है । भगवन् ! उस (वायुकाय) का स्पर्श होने पर वह मरता है या बिना स्पर्श हुए ही मर जाता है ? गौतम ! उसका दूसरे पदार्थ के साथ स्पर्श होने पर ही वह मरता है, विना स्पर्श हुए नहीं मरता । भगवन् ! वह (मृत वायुकाय) शरीरसहित (भवान्तर में) जाता है या शरीररहित है ? गौतम ! इस विषय में स्कन्दक-प्रकरण के अनुसार, यावत्-शरीर-रहित हो कर नहीं जाता; (तक) जानना चाहिए ।
[६६२] भगवन् ! अंगारकारिका में अग्निकाय कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट तीन रात-दिन तक, वहाँ अन्य वायुकायिक जीव भी उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वायुकाय के विना अग्निकाय प्रज्वलित नहीं होता ।
[६६३] भगवन् ! लोहा तपाने की भट्ठी में तपे हुए लोहे को लोहे की संडासी से ऊँचानीचा करने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? गौतम ! जब तक वह पुरुष लोहा तपाने की भट्ठी में लोहे की संडासी से लोहे को ऊँचा या नीचा करता है, तब तक वह पुरुष कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी क्रिया तक पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है तथा जिन जीवों के शरीर से लोहा बना है, लोहे की भट्ठी बनी है, संडासी बनी है, अंगारे बने हैं, अंगारे निकालने की लोहे की छड़ी बनी है और धमण बनी है, वे सभी जीव भी कायिकी से लेकर यावत् प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियों से स्पृष्ट होते हैं ।