________________
१५२
लगती हैं । कन्द के अनुसार यावत् बीज के
विषय में भी कहना ।
[६९७] भगवन् ! शरीर कितने कहे गए हैं ? गौतम ! पांच यथा - औदारिक यावत् कार्मण शरीर । भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! पांच यथा-- श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय । भगवन् ! योग कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का यथामनोयोग, वचनयोग और काययोग ।
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
भगवन् ! औदारिकशरीर को निष्पन्न करता हुआ जीव कितनी क्रिया वाला होता है ? गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियावाला । इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव से लेकर मनुष्य तक समझना चाहिए ।)
भगवन् ! औदारिक शरीर को निष्पन्न करते हुए अनेक जीव कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? गौतम ! वे कदाचित् तीन, कदाचित् चार और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं । इसी प्रकार अनेक पृथ्वीकायिकों से लेकर अनेक मनुष्यों तक पूर्ववत् कथन करना चाहिए । इसी प्रकार वैक्रियशरीर के विषय में भी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से दो दण्डक कहने चाहिए । किन्तु उन्हीं के विषय में कहना चाहिए, जिन जीवों के वैक्रियशरीर होता है । इसी प्रकार यावत् कार्मणशरीर तक कहना चाहिए ।
प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय से यावत् स्पर्शेन्द्रिय तक कहना चाहिए । इसी प्रकार मनोयोग, वचनयोग और काययोग के विषय में जिसके जो हो, उसके लिए उस विषय में कहना। ये सभी मिलकर एकवचन बहुवचन सम्बन्धी छव्वीस दण्डक होते हैं ।
[६९८] भगवन् ! भाव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! छह प्रकार के यथाऔदयिक, यावत् सान्निपातिक । भगवन् ! औदयिक भाव कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का । यथा-उदय और उदयनिष्पन्न । इस प्रकार अनुयोगद्वार - सूत्रानुसार छह नामों की समग्र वक्तव्यता, कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक - १७ उद्देशक - २
[६९९] भगवन् ! क्या संयत, प्राणातिपातादि से विरत, जिसने पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया है, ऐसा जीव धर्म में स्थित है ? तथा असंयत, अविरत और पापकर्म का प्रतिघात एवं प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव अधर्म में स्थित है ? एवं संयतासंयत जीव धर्माधर्म में स्थित होता है ? हाँ, गौतम ! संयत-विरत यावत् धर्माधर्म में स्थित होता है ।
भगवन् ! क्या इस धर्म में, अधर्म में अथवा धर्माधर्म में कोई जीव बैठने या लेटने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? गौतम ! संयत, विरत और पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान करने वाला जीव धर्म में स्थित होता है और धर्म को ही स्वीकार करके विचरता है । असंयत, यावत् पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव अधर्म में ही स्थित होता है और अधर्म को ही स्वीकार करके विचरता है, किन्तु संयतासंयत जीव, धर्माधर्म में स्थित होता है और धर्माधर्म को स्वीकार करके विचरता है । इसलिए हे गौतम! ऐसा कहा गया है ।
भगवन् ! क्या जीव धर्म में स्थित होते हैं, अधर्म में स्थित होते हैं अथवा धर्माधर्म में स्थित होते हैं ? गौतम ! जीव, धर्म में भी स्थित होते हैं, अधर्म में भी स्थित होते हैं और धर्माधर्म