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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयभिागस्य
अथ अष्टमं परिशिष्टम् । [विश्वप्रहेलिकाख्ये [१९६९ तमे ख्रिस्ताब्दे, जवेरी प्रकाशन, माटुंगा, बम्बई इत्यतः प्रकाशिते] हिन्दीभाषानिबद्ध ग्रन्थे तेरापंथीश्री महेन्द्रमुनिभिः आधुनिकगणितविज्ञानादिना विचारणां विधाय बहु बहु लिखितमत्र विषये, तदपि ज्ञातव्यमत्रेति विचार्य ततः अक्षरश उद्धृत्य अत्र अष्टमे परिशिष्टे उपन्यस्यते । तेषां मते कियत् तथ्यं तत् सुधीभिः स्वयमेव परीक्षणीयम् ॥
"क्षेत्र लोक विश्व का आकार क्या है ?
___ अनन्त-असीम आकाश के बहुमध्यभाग में स्थित सान्त-ससीम 'लोक' का निश्चित आकार माना गया है। जो धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का आकार है, वही लोक का आकार बन जाता है। दूसरे शब्दों में जिस आकार से धर्म और अधर्म द्रव्य लोकाकाश में स्थित है, उसी आकार से 'लोक' स्थित है । जिज्ञासु शिष्य गौतम के विश्व के आकार के सम्बन्ध में प्रश्न और सर्वज्ञ भगवान् महावीर के उत्तर इस प्रकार रहे हैं :
गौतम : भगवन् ! इस लोक का क्या आकार है ?
भगवान् : गौतम ! यह लोक सुप्रतिष्ठित आकार वाला है। अर्थात् नीचे से विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में विशाल - नीचे पर्यंक संस्थान वाला, मध्य में वरवज्र के आकार और ऊपर में ऊर्ध्व मृदंग के आकार से संस्थित है ।
सुप्रतिष्ठित आकार का अर्थ है - त्रिशरावसम्पुटाकार । एक शिकोरा (शराव) उल्टा, उस पर एक शिकोरा सीधा, फिर उस पर एक उल्टा रखने से जो आकार बनता है, उसे त्रिशरावसम्पुटाकार कहते हैं । इस प्रकार से बने आकार में नीचे चौडाई अधिक और मध्य में कम होती है । पुनः ऊपर चौडाई अधिक होती है और अन्त में पुनः कम हो जाती है। सामान्य मनुष्य को लोक का आकार समझाने के लिए विविध पदार्थो की उपमा दी गई है । अधो लोक पर्यङ्क के सदृश, तप्र के सदृश
और वेत्रासन के सदृश संस्थान वाला' कहा गया है। पर्यङ्क, वेत्रासन और तप्र (उडुपक) का विस्तार नीचे अधिक और ऊपर कम होता है; इसलिए अधोलोक को उनकी उपमा दी गई है । इस प्रकार मध्यलोक को वरवज्र, झल्लरी, और ऊर्ध्व (खडे किए हुए) मृदंग के ऊर्ध्व भाग के समान आकार का कहा गया है; क्योंकि मध्यलोक के विस्तार की अपेक्षा में उसका उत्सेध बहुत कम है । 'ऊर्ध्व लोक' को ऊर्ध्व मृदंग के आकार का बताया गया है; क्योंकि मृदंग बीच में अधिक चौडा और ऊपरनीचे कम चौडा होता है। अन्यत्र समग्र लोक का आकार पुरुष-सस्थान भी बतलाया गया है। दोनों १. किंसठिए णं भन्ते! लोए पण्णते? गोयमा! सुपइट्ठगसंठिए लोए पण्णते, तंजहा- हेट्ठा वित्थिपणे जाव उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठिते ....... - भगवती सूत्र, ७-१-२६० । २. अहोलोकखेत्तलोए णं भन्ते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! तप्पागारसंठिए पण्णत्ते। - वही ११-१०-४२० । ३. हेट्ठिमलोयायारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण। - तिलोयपण्णत्ति, १-१३७। ४. तिरयलोयखेत्तलोएणं भन्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते। - भगवतीसत्र, ११-१०-४२०: हेटठा मज्झे उवरिं वेत्तासणझल्लरी-मुइंगणिहो। - जम्बूदीवपण्णत्ति-संगहो, ११-१०६।५. मज्झिमलोयायारो उब्भियमुरअद्धसारिच्छो। - तिलोयपण्णत्ति, १-१३७ । ६. उडलोय खेत्तलोयपुच्छा-उड्ढमुइंगाकारसंठिए पण्णत्ते । - भगवतीसूत्र, ११-१०-४२०; उवरिमलोयायारो उब्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। - तिलोयपण्णत्ति, १-१३८ ।
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