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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण
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भाग ही वे तय कर पाते हैं । इस दृष्टान्त से अलोकाकाश किस प्रकार अनन्त - असीम है, इसका अनुमान हो सकता है ।"
गाणितिक विवेचन
लोक के आकार और आयतन के विषय में जैन साहित्य में विस्तृत गाणितिक विवेचन मिलता है, किन्तु दिगम्बर - परम्परा और श्वेताम्बर - परम्परा में यह विवेचन भिन्न-भिन्न रूप से मिलता है । दिगम्बर-परम्परा
I
दिगम्बर- परम्परा के अनुसार लोक का गाणितिक - विवेचन निम्नोक्त है । (देखे चित्र नं. १ ) "लोक के तीन परिमाणों में से (ऊँचाई, लम्बाई, चोंडाई) प्रथम परिमाण अर्थात् ऊँचाई ९४ रज्जु है। दूसरा परिमाण (अर्थात् चौडाई ) सर्वत्र ७ रज्जु है । तीसरा परिमाण (अर्थात् लम्बाई) सारे लोक में समान नहीं है । लोक के विभिन्न स्थानों पर लोक की लम्बाई भिन्न-भिन्न है । उसको समझने के लिए लोक AI ( ऊँचाई के प्रमाण से ) दो विभागों की कल्पना करनी चाहिए । अर्थात् लोक के दो भाग करने चाहिए, जिसमें से प्रत्येक भाग की ऊँचाई ७ रज्जु हो । इन दो भागों में से, प्रथम अधस्तन भाग (अधोलोक) नीचे (आधार पर) ७ रज्जु लम्बा है और ऊपर क्रमशः घटता घटता १ रज्जु । इस प्रकार अधोलोक का आकार समलम्बचतुर्भुजाधार समपार्श्व के सदृश होता है, जिसकी ऊँचाई ७ रज्जु, चौडाई सर्वत्र ७ रज्जु और लम्बाई नीचे आधार पर ७ रज्जु और ऊपर १ रज्जु है । (देखे चित्र नं. २,३ )
(६) इस प्रकार के आकार वाले घन का घनफल निकालने के लिए पहले समलम्ब चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकाल कर उसको ऊँचाई से गुणन करना चाहिए ।
दो समानान्तर भुजाओं को लम्बाई क्रमशः ७ रज्जु और । (देखे चित्र नं. ४) अतः,
२८ वर्ग रज्जु
समलम्ब चतुर्भुज का क्षेत्रफल -
१ रज्जु है और लम्ब की लम्बाई ७ रज्जु
=
क्षेत्रफल = { े (७+१) × ७ } इसलिए घनफलं = २८ x ७ इस प्रकार अधोलोक का
=
१९६ घन रज्जु
घनफल
१९६ घन रज्जु है ।
ऊर्ध्व लोक की ऊँचाई ७ रज्जु है, चौडाई सर्वत्र ७ रज्जु है और लम्बाई नीचे ९ रज्जु, बीच में ५ रज्जु और ऊपर १ रज्जु है । इस प्रकार, ऊर्ध्वलोक दो समान समलम्ब चतुर्भुजाधार समपार्श्व का बना हुआ है (चित्र नं० ५, ६) । प्रत्येक समपार्श्व का घनफल = समलम्ब - चतुर्भुज का क्षेत्रफल x ऊँचाई | यहाँ पर समलम्ब - - चतुर्भुज की दो समानान्तर भुजाएँ १ रज्जु और ५ रज्जु है तथा ऊँचाई ३२ रज्जु है (देखें चित्र नं० ७); अतः
* यही बात जैन विश्व भारती संस्था, लाडनूं ( राजस्थान पिन ३४१३०६ ) से ख्रिस्ताब्द १९९६, सितम्बर में प्रकाशित अणुयोगदाराई में पृ० २४५ से २४९ में संपादक - विवेचक तेरापंथी आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखी है । १. अनन्त का गणितिक विवेचन और जैन दर्शन में अनन्त की परिभाषा के लिए देखें, परिशिष्ट- ३ । २. तिलोयपण्णत्ति, १-१४० से २०० के आधार पर । ३. रज्जु जैन- खगोल-शास्त्र का नाम है, जिसके विषय में विस्तारपूर्वक विवेचन पृ. १२५ से आगे किया गया है ।
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