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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १५६
"यह लोक निश्चयतः अकृत्रिम है, अनादि-निधन है, स्वभाव से निर्मित है, जीव और अजीव द्रव्यों से व्याप्त है, नित्य है तथा ताल वृक्ष के आकार वाला है।"
"लोक का विष्कम्भ (विस्तार) चार प्रकार का है, जिसमें अधोलोक के अन्त में सात रज्जु, मध्यलोक के पास एक रज्जु, ब्रह्मलोक के पास पांच रज्जु और ऊर्ध्वलोक के अन्त में एक रज्जु विस्तार
धवलाकार की मान्यता (उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सप्त रज्जु बाहुल्य) का जो विरोध इन तीन गाथाओं के साथ दिखाई पडता है, उसका निराकरण करते हुए वे लिखते है - "इस लोक (आयतचतुरस्राकार) का प्रथम गाथा के साथ भी विरोध नहीं है, क्योंकि एक दिसा में वेत्रासन और मृदंग का आकार दिखाई देता है । यदि कहा जाए कि अभी बताये गए लोक में (मध्य भाग पर) झल्लरी का आकार नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि मध्यलोक में स्वयम्भूरमण समुद्र से परिक्षिप्त तथा चारों ओर से असंख्यात योजन विस्तार और एक लाख योजन मोटाई वाला यह मध्यवर्ती प्रदेश चन्द्र मण्डल की तरह झल्लरी के समान दिखाई देता है और दृष्टान्त सर्वथा दार्टान्त के समान नहीं होता है, अन्यथा दोनों के ही अभाव का प्रसंग आ जायेगा । यदि कहा जाये ऊपर बताये गए इस लोक के आकार में तालवृक्ष के समान आकार सम्भव नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि एक दिशा से देखने पर तालवृक्ष के समान संस्थान दिखाई देता है और तीसरी गाथा के साथ भी विरोध नहीं आता है, क्योंकि, यहां पर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों ही दिशाओं में गाथोक्त चारों ही प्रकार के विष्कम्भ देखे जाते है....।"
इस प्रकार धवलाकार ने जिन शंकाओं का समाधान किया है, वे नवीन आकार वाले लोक के विषय में उठती ही नहीं । क्योंकि इस नवीन आकार में चारों ओर से लोक का समान आकार दिखाई देता है । दूसरी बात यह है कि धवलाकार द्वारा किया गया समाधान ही इतना सन्तोषजनक नहीं है, क्योंकि गाथाओं में कही भी नहीं कहा गया है कि केवल एक ही दिशा में वेत्रासन आदि आकार वाला लोक है। अतः सामान्यतया इस प्रकार के वर्णन से तो यही अर्थ निकलना चाहिए कि सब दिशाओं में लोक का वेत्रासन आदि आकार दिखाई देता है। तीसरी गाथा में 'विष्कम्भ' के विषय में भी जो समाधान दिया गया कि केवल पूर्व-पश्चिम में चार प्रकार के विष्कम्भ देखे जाते हैं, यह भी इतना सन्तोषजनक नहीं लगता, क्योंकि गाथा में पूर्व-पश्चिम' का कहीं भी उल्लेख नहीं है। प्रत्युत विष्कम्भ शब्द साधारणतया सर्वत्र समान विस्तार हो तभी उपयोग में आता है। अतः तीसरी गाथा से तो यही अर्थ निकलता है कि पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, विस्तार सात रज्जु, एक रज्जु, पांच रज्जु और एक रज्जु है । इन शंकाओं का समाधान नवीन आकृति में सहज रूप से मिल जाता है, क्योंकि नवीन आकृति पूर्णरूप से सममित (Symmetrical) है और गाथाओं में बताया गया आकार तथा विष्कम्भ सभी दिशाओं १. ण च एदस्स लोगस्स पढमगाहाए सह विरोहो, एगदिसाए वेत्तासणमुदिंगसंठाणदंसणादो । ण च एत्थ झल्लरीसंठाणं णत्थि, मज्झम्हि सयंभुरमणोदहिपरिक्खित्तदेसेण चंदमण्डलमिव समंतदो असंखेजजोयणरुदेण जोयणलक्खबहल्लेण झल्लरीसमाणत्तादो। ण च दिट्ठतो दाळंतिएण सव्वहा समाणो, दोण्हं पि अभावप्पसंगादो । ण च तालरुक्खसंठाणमेत्थ ण संभवइ, एगदिसाए तालरुक्खसंठाणदसणादो। ण च तईयाइ गाहाए सह विरोहो, एत्थ वि दोसु दिसासु चउव्विहविक्खंभदसणादो। - वही, पृ० २१-२२।
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