________________
श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १६८ जब तक कि अविभागप्रतिच्छेद अर्थात् एक परमाणु (प्रदेश) नहीं प्राप्त हो जायेगा । इस प्रकार से उत्पन्न हए समस्त क्षेत्रों के घनफलों के जोड़ने का विधान कहते हैं। वह इस प्रकार है - सभी क्षेत्रों का घनफल चतुर्गुणित क्रम से अवस्थित है, इसलिए उनमें अन्तिम क्षेत्रफल को चार से गुणा करके और चार में से एक कम अर्थात् तीन से भाग देने पर घनफल ६५ १३२० इतना होता है और अधोलोक के सभी क्षेत्रों का घनफल १०६ २१ होता है।
__ अब चारों ओर से मृदंगाकार ऊर्ध्व लोक रूप क्षेत्र का घनफल निकालते हैं। उसमें एक रज्जु चौड़े, सात रज्जु लम्बे और गोल आकार वाले सूची रूप क्षेत्र का घनफल पहले अधोलोक में कहे गये विधान से निकालने पर ५ ३३७ रज्जु इतना होता है। (इस सूची को ऊर्ध्वलोक के मध्य भाग से निकालकर पृथक् स्थापन कर देना चाहिए ।) अब, लोक को मध्य लोक से काटने पर जो दो भाग पहले हुए थे, उसमें के ऊपरी अर्ध भाग को, पांच रज्जु है विष्कम्भ जहां पर ऐसे ब्रह्मलोक के अन्तस्थित प्रदेश पर बीच से खण्डित कर उसमें से एक खण्ड को पृथक् स्थापन कर बचे हुए खण्ड को मध्य में ऊपर से नीचे तक फाड़कर पसारने से सूपा के आकार वाला क्षेत्र हो जाता है। उसके मुख का विस्तार ३७१ इतना होता है । तथा तल विस्तार १५ ९९ इतना होता है । इस सूर्य क्षेत्र के मुख में मोटाई आकाश के एक प्रदेश प्रमाण है और तल के मुख-प्रमाण मध्य-भाग में दो रज्जु मोटाई है, पुनः क्रम से हानि को प्राप्त होती हुई अर्थात् कम होती हुई इसी तल भाग के दोनों कोनों पर आकाश के एक प्रदेश प्रमाण मोटाई है। इस सूर्प क्षेत्र को, मुख विस्तार-प्रमाण विष्कम्भ से खंडित करने पर दो त्रिकोण क्षेत्र और एक आयतचतुरस्र क्षेत्र हो जाते हैं। उसमें से पहले आयतचतुरस्र क्षेत्र का जो साढ़े तीन रज लम्बा है, तीन रज से कछ अधिक अर्थात ३३२ रज्ज चोडा है. तल में दो रज और मुख में एक आकाश प्रदेश प्रमाण मोटा है, ऐसे उस आयतचतुरस्र क्षेत्र का घनफल निकालते हैं। वह इस प्रकार है - विष्कम्भ ३७१ से उत्सेध ५ को गुणा कर पुनः उसे मोटाई के प्रमाण एक रज्जु से गुणा करने पर मध्यम अर्थात् आयतचतुरस्र क्षेत्र का घनफल आ जाता है । उसका प्रमाण ३७१ x x१ = ११३१४ इतना होता है । शेष जो दो त्रिकोण क्षेत्र हैं, जो कि साढे तीन रज्जु ऊंचे तथा एक रज्जु को एक सौ तेरह से खंडित कर उनमें बत्तीस खंड से अधिक छ: रज्जु अर्थात् ६३२, रज्जु चौड़े हैं, उन्हें पहले के समान ही मध्य में से खंडित कर उनमें उत्पन्न हुए चार त्रिकोण क्षेत्रों को दूर रख कर दोनों आयतचतुरस्र क्षेत्रों का, जो कि पौने दो रज्जु ऊंचाई वाले, तथा एक सौ तेरह से एक रज्जु को खण्डित कर उनमें सोलह खण्डों से अधिक तीन रज्जु अर्थात् ३५६, रज्जु प्रमाण चौड़े, तथा क्रमशः दो, एक, शून्य और एक रज्जु मोटे हैं, उनके घनफल को निकालते हैं।
विशेषार्थ :- यहाँ पर जो आयतचतुरस्र क्षेत्र की मोटाई क्रमशः दो, एक, शून्य और एक रज्जु प्रमाण कही है, उसका अभिप्राय यह है कि ब्रह्मलोक के पास वाले भीतरी भाग की मोटाई दो रज्जु है । उसी के बाहरी भाग की मोटाई एक रज्जु है । कर्णरेखा वाले क्षेत्र की मोटाई शून्य या एक प्रदेश है और कोटि रेखा के भाग वाले ऊपरी क्षेत्र की मोटाई एक रज्जु है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org