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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १७२ के खण्डूकों की संख्या १५२९६ बताई गई है। यह एक भावी अन्वेषण का विषय है कि इनका तात्पर्य क्या है ?
लोक-आयतन को ऊपर युक्लिडीय भूमिति के आधार पर निकाला गया है । जैन आगमों में कुछ एक प्रमाण ऐसे मिलते हैं, जो यह सुझाने वाले हैं कि लोकाकाश की भूमिति युक्लिडीयेतर हो । उदाहरणार्थ, लोक स्थित वर्तुलाकार संस्थान (द्वीप आदि) को परिधि आदि को निकालते समय का मूल्य V१० लिया गया है । यह एक सोचने का विषय है कि क्या. यह मान का सन्निकट मूल्य है या युक्लिडियेतर भूमिति के अनुसार लिया गया मूल्य है ? इसके अतिरिक्त यदि लोक का आकार वक्रता-युक्त है, तो यह भी सम्भव क्यों न माना जाये कि उसकी भूमिति युक्लिडियेतर है और यदि लोकाकाश की भूमिति भी युक्लिडियेतर है, तो इसका आयतन भी युक्लिडियेतर भूमिति के आधार पर निकालना आवश्यक हो जाता है, यह भी एक भावी अनुसन्धान का विषय है।"
- विश्वप्रहेलिका का चतुर्थपरिशिष्ट पृ० २९७-३०६ ।
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