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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १६६ और एक रज्जु प्रमाण चौड़ी उक्त लोग सूची का घनफल ५ ३३७ इतना होता है । फिर सूची रहित चौदह रज्जु लम्बे लोकरूप क्षेत्र के मध्यलोक के पास से दो खण्ड करके उनमें से नीचे के अर्थात् अधोलोकसम्बन्धी खण्ड को ग्रहण कर उसे (एक ओर से) ऊपर से (लगाकर नीचे तक) काटकर पसारने पर सूर्प (सूपा) के आकार वाला क्षेत्र हो जाता है ।
विशेषार्थ - यहां पर शंकाकार, अन्य आचार्यों से प्ररूपित जिस, मृदंगाकार लोक को दृष्टि में रखकर यह कथन कर रहा है, उसका भाव यह है कि कितने ही आचार्य अधोलोक का आकार चारों ओर से गोल ऐसे वेत्रासन के समान मानते हैं । जो नीचे गोल आकार वाला तथा सात रज्जु चौडा है और ऊपर क्रमशः घटता हुआ मध्य लोक में गोल आकार वाला तथा एक रज्जु चौडा है। इसके ठीक मध्य में ऊपर से नीचे तक स्थित सात रज्जु लम्बी एक रजु चौडी गोल आकार वाली वसनाली है । उसको यदि वेत्रासनाकार अधोलोक के बीच में से निकाल कर बचे हुए अधोलोक को एक ओर से ऊपर से नीचे तक काटकर पसार दिया जाय, तो उसका आकार ठीक सूपा के समान हो जाता है।
इस सूर्पाकार क्षेत्र के मुख का विस्तार ३९१ इतना है और तल का विस्तार २२ १५. रजु प्रमाण है। इसे मुख विस्तार से (अर्थात् मुखविस्तार के अन्त से लगाकर दोनों ओर) सात रज्जु लम्बा नीचे की ओर छेदने पर दो त्रिकोण क्षेत्र और एक आयतचतुरस्र क्षेत्र, इस प्रकार तीन क्षेत्र हो जाते है।
उक्त प्रकार से बने हुए तीन क्षेत्रों में से पहले आयतचतुरस्र आकारवाले मध्य वर्ती क्षेत्र का घनफल निकालते हैं । इस आयतचतुरस्र क्षेत्र का उत्सेध (ऊंचाई) सात रज्जु है और विष्कम्भ ३७१ इनते रज्जु है । मुख में एक प्रदेश-प्रमाण बाहल्य (मोटाई) है और तल भाग में तीन रज्जु प्रमाण बाहल्य है, इसलिए उत्सेध का प्रमाण जो सात रज्जु है, उससे मुख के प्रमाण को गुणा करके तल भाग का बाहुल्य जो तीन रज्जु है, उसके आधे से अर्थात् डेढ़ रज्जु से गुणा करने पर मध्यम क्षेत्र का अर्थात् आयतचतुरस्र क्षेत्र का घनफल ३७१४0 x ३ - ३४ ३९६ इतना होता है।
अब शेष जो दो त्रिकोण क्षेत्र हैं, वे सात रज्जु लम्बे हैं और एक सौ तेरह से एक रज्जु को खंडित कर उनमें से अडतालीस खण्ड अधिक नौ रज्जु भुजा वाले हैं अर्थात् उनका अधोविस्तार ९.४८ है। इसी विस्तार को यहां त्रिकोण क्षेत्र की अपेक्षा से 'भुजा' कहा है। तथा उन दोनों त्रिकोण क्षेत्रों का भुजा और कोटि के यथायोग्य सम्भवित कर्ण का प्रमाण है। इन दोनों त्रिकोण क्षेत्रों को कर्णभूमि से लेकर दोनों ही दिशाओं में बीच में से काटने पर तीन-तीन क्षेत्र हो जाते हैं।
विशेषार्थ :- यहां पर त्रिकोण क्षेत्र के भुजा और कोटि का प्रमाण तो दिया है, पर कर्ण का प्रमाण नहीं दिया है। उसके निकालने की प्रक्रिया यह है कि भुजा के प्रमाण का वर्ग और कोटि के प्रमाण का वर्ग जितना हो, उन्हें जोडकर उसका वर्गमूल निकालना चाहिए, जो वर्गमूल का प्रमाण आवे,
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