Book Title: Agam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Aryarakshit, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 519
________________ १६५ श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण (१) १७.६ x १०६ (५.६४ x १०२४५) + १३ } घन माईल (२) २२ x १०{ (५.६४ x १०२४५) + १३ } घन माईल घन प्रकाश - वर्षों में विश्व का घनफल क्रमशः - (१) ३.५६ x १०(५.६४ x १०२४५) - २३ } घन प्रकाश-वर्ष (२) ०.४४५ x १०{ (५.६४ x १०२४१) - २३ } घन प्रकाश-वर्ष इस प्रकार दो पद्धतियों से रज्जु का अंकीकरण किया गया। यहां यह स्मरण रखना होगा कि उक्त प्रकारों से निकाले गए रज्जु के मूल्य वास्तविक नहीं है, किन्तु केवल रज्जु की न्यूनतम-मर्यादा के रूप में है । इसीलिए दोनों प्रकारों से निकाले गए मूल्यों में साम्य नहीं है । रज्जु का वास्तविक मान निकाले गए मूल्यों से बहुत अधिक होना चाहिए। रज्जु के वास्तविक मूल्य के दैर्घ्य का अनुमान ज०प०अ० की दी गई व्याख्या से हो सकता है। प्रस्तुत समग्र गाणितिक विवेचन का उपसंहार इन दो तथ्यों में आ जाता है - (१) विश्व त्रिशरावसम्पुटाकार से स्थित है । (२) विश्व का घनफल १०१० घन माईल से कम नहीं है।" -विश्वप्रहेलिका पृ०८८-१२३ [विश्वप्रहेलिका का चतुर्थपरिशिष्ट] लोक-आयतन की गाणितिक विधि धवलाकार वीरसेनाचार्य द्वारा निकाले गये मृदंगाकार लोक का आयतन यहां (हिन्दी अनुवाद से) यथावत् उद्धृत किया जाता है । "चौदह रज्जु प्रमाण आयत, एक रज्जु प्रमाण विस्तृत और गोल आकार वाली, ऐसी मृदंगाकार लोक की सूची को लोक के मध्य से निकाल करके पृथक् स्थापन करना चाहिए । इस प्रकार से स्थापित करके अब उसके फल अर्थात् घनफल को निकालने का विधान करते है। वह इस प्रकार है - मुख में तिर्यक् रूप से गोल और आकाश के एक प्रदेश प्रमाण बाहल्य वाली इस पूर्वोक्त सूची की परिधि ३७१ इतनी होती है । इस परिधि के प्रमाण को आधा करके, पुनः उसे एक रज्जु विष्कम्भ के आधे से गुणा करने पर, उसके क्षेत्रफल का प्रमाण ३७१ इतना होता है । अब हमें लोक के अधोभाग का घनफल लाना इष्ट है, इसलिए उस क्षेत्रफल को सात रज्जुओं से गुणा करने पर सात रज्जु प्रमाण लम्बी १. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ४, पृ० १२ से १८ । यहां धवला के मूल पाठ के लिये देखें, अनुयोगद्वार का सप्तम परिशिष्ट पृ० १३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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