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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण
बाहल्य से दुगुना है । ये बाहल्य योजनों में मापे गए हैं । प्रमाणांगुल उत्सेध-आंगुल से १००० गुना होता है। जम्बूद्वीप का व्यास प्रमाणांगुल से निष्पन्न १,००,००० योजन है। दूसरा वलय, जो कि समुद्र है, २,००,००० योजन बाहल्य वाला है। तीसरा वलय, जो कि द्वीप है, ४,००,००० योजन बाहल्य वाला है और इसी प्रकार से अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र का वलय आता है। इस अन्तिम वलय के पूर्व-पश्चिम किनारों पर अर्थात् इस वर्तुल के पूर्व-पश्चिम व्यास के दो छोरों पर दो वेदिकाएं हैं। इन वेदिकाओं के बीच में जो अन्तर है, वह एक 'रज्जु' है।
उक्त व्याख्या और उसके विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि वलयों के बाहल्य ‘गुणोत्तर श्रेढि' में है। अन्तिम वर्तुल का व्यास जो कि १ रजु है, वही संख्या है, जो संख्या सभी वलयों के बाहल्य को जोड़कर उसे २ से गुणन करें और गुणनफल में से प्रथम वर्तुल का व्यास (= १०५ योजन) घटाने पर आती है । (क्योंकि प्रथम वलय को छोड कर शेष सभी वलय दो बार गिने जायेंगे)।
इस प्रकार गाणितिक संज्ञा में - १ रज्जु = { (२६ सभी वलयों का बाहुल्य) - प्रथम वर्तुल का व्यास) } प्रथम वर्तुल का व्यास १०५ योजन है । यदि न = सभी वलयों की संख्या हो तो L सभी वलयों का बाहुल्य = ((३-१) x १०५) योजन अतः १ रज्जु = { २ [ (३-१) x १०५ ] - (१०५) } योजन = { २ न + १ - ३) x १०५ } योजन
सभी वलयों की संख्या 'न' है, उसका अंकीकरण करने के लिए 'न' की निम्न व्याख्या का उपयोग करना होगा -
"अढाई सूक्ष्म उद्धार सागरोपम (सू०उ०सा०) के जितने 'समय' है, उतनी द्वीप-समुद्रों की संख्या है । अर्थात् २५ कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धार पल्योपम (सू०उ०प०) के जितने 'रोमखण्ड' है, उतनी द्वीप-समुद्रों की संख्या है।"२ ‘पल्योपम' और 'सागरोपम' जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द है और ये काल के माप हैं ।
एक सू०उ०प० के समयों की संख्या इस प्रकार निकाली जा सकती है : कुएं में रहे हुए केशाग्रखण्डों की संख्या है
(३.३ x १०३६ x असंख्यात) यहां पर 'असंख्यात' का अंकीकरण करना हमारे लिए सम्भव नहीं है। इसलिए हम पुनः वही
१. देखें, परिशिष्ट-१ । १. आम्यां सागरपल्याभ्यां मीयन्ते द्वीपसागराः । अस्याः सार्द्धद्विसागर्याः समयैः प्रमिता हि ते ॥ यद्वैतासु पल्यकोटाकोटिषु पंचविंशती। यावन्ति बालखण्डानि तावन्तो द्वीपसागराः ।। - लोकप्रकाश, १-९६-९७ ।
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