Book Title: Agam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Aryarakshit, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 509
________________ १५५ श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टभं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण इसको सिद्ध करने की कोई भी गाणितिक विधि यहां उपलब्ध नही होती है । जिस व्यावहारिक विधि के आधार पर लोक का घनफल ३४३ घन रज्जु सिद्ध किया गया है, उसकी चर्चा की जा चुकी है, किन्तु वह विधि गणित की दृष्टि से अपूर्ण लगती है । आधुनिक गणित-पद्धतियों के प्रकाश में यदि आधुनिक गाणितिक विषयों के प्रकाश में उक्त समस्या का अध्ययन किया जाये, तो ऐसा समाधान निकल सकता है, जो उल्लिखित मूल मान्यताओं के साथ संगत हो और उसमें गाणितिक विधियों की पूर्णता भी सुरक्षित रहे । इस प्रकार का प्रयत्न करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि लोक का ३४३ घन रज्जु आयतन श्वेताम्बर-परम्परा के द्वारा प्रतिपादित मूल मान्यताओं पर निकाला जा सकता है। इस प्रकार के प्रयत्न के फलस्वरूप हम लोकाकृति के जिस निर्णय पर पहुंचते हैं, उसकी ये विशेषताएं उल्लेखनीय है : १. धवलाकार आचार्य वीरसेन ने लोक के सम्पूर्ण घनफल को ३४३ घन-रज्जु सिद्ध करने के लिए तथा अधोलोक के घनफल को १९६ घन-रज्जु और ऊर्ध्वलोक के घनफल को १४७ घनरज्जु सिद्ध करने के लिए लोक के उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु मोटाई की कल्पना की है, क्योंकि उनके मतानुसार लोक को अन्य प्रकार से मानने पर उक्त घनफल सम्भव नहीं है । इस नवीन आकृति में सर्वत्र सात रज्जु बाहुल्य माने बिना भी समग्र लोक का घनफल ३४३ घन-रज्जु, ऊर्ध्वलोक का १४७ घन-रज्जु और अधोलोक का १९६ घन-रज्जु सम्भव हो जाता है। २. श्वेताम्बर-परम्परा एवं दिगम्बर-परम्परा की सभी मूलभूत मान्यतायें इस नवीन विधि में अखण्डित रह जाती हैं। यह तो स्पष्ट हो ही चुका है कि 'उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु बाहल्य' की मान्यता दिगम्बर-परम्परा की मूल मान्यता नहीं है, जैसे धवलाकार ने स्वयं कहा है। इसके अतिरिक्त धवलाकार ने दिगम्बर-परम्परा की जिन मूलभूत मान्यताओं का उल्लेख किया है, उनके साथ 'उत्तरदक्षिण सर्वत्र सात रज्जु बाहल्य' वाली मान्यता इतनी संगत नहीं होती है, जितनी इस नवीन विधि में प्रतिपादित लोक-आकृति होती है - जैसे घवलाकार ने मूलभूत मान्यता की द्योतक तीन गाथाओं को उद्धृत करते हुए लिखा है - "नीचे वेत्रासन के समान, मध्य में झल्लरी के समान और ऊपर मृदंग के समान आकार वाला तथा मध्यविस्तार (अर्थात् एक रजु) से चौदह गुना लम्बा लोक है।" १. आधुनिक 'समाकलन-गणित' में ठोस आकृतियों के आयतन निकालने की विधि के आधार पर लोकाकृति का आयतन निकालने पर ३४३ घन-रज्जु का आयतन किस प्रकार हो सकता है, इसके लिए देखें, परिशिष्ट-४ । २. देखें, षट्खण्डागम, भाग-४, पृ० २० । ३. ण च सत्तरजुबाहल्लं करणाणिओगसुत्तविरुद्धं, तस्स तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो। - वही, पृ०२२ । १. धवलाकार ने मूलभूत मान्यता की द्योतक निम्न तीन गाथाए उद्धृत की है: हेट्ठा मज्झे उवरिं वेत्तासणझल्लरीमुइंगणिहो । मज्झिमवित्थारेण य चोद्दसगुणमायदो लोगो ॥ लोगो अकट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो । जीवाजीवेहि फुडो णिच्चो तलरुक्खसंठाणो ।। लोयस्स य विक्खंभो चउप्पयारो य होइ णायव्वो। सत्तेक्कगो य पंचेक्कगो य रज्जु मुणेयव्वा ।। - वही, पृ० ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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