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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण
उसका उल्लेख धवला में किया गया है। किन्तु उस मान्यता में गाणितिक दृष्टि से यह त्रुटि थी कि लोक का समग्र घनफल ३४३ घन रज्जु से बहुत कम था। वीरसेनाचार्य ने गाणितिक आधारों पर मृदंगाकार लोक का घनफल निकाल कर दिखा दिया कि यह मान्यता ३४३ घन रज्जु की मान्यता के साथ संगत नहीं हो सकती है। तदुपरान्त उन्होंने दो प्राचीन गाथाओं के आधार पर यह बताया कि लोक का घनफल अधोलोक में १९६ घन रज्जु और ऊर्ध्व लोक में १४७ घन-रज्जु होना चाहिए। उन्होंने अपनी गाणितिकप्रतिभा द्वारा खोज निकाला कि ऐसा फलित तभी हो सकता है, जबकि लोक की एक विमिति को सर्वत्र सात रज्जु मान लिया जाये । इस परिकल्पना के आधार पर उन्होंने लोक की जो आकृति बनाई, उसमें लोक का समग्र घनफल ३४३ घन रज्जु, अधोलोक का १९६ घनरज्जु और ऊर्ध्वलोक का १४७ घनरज्जु हुआ । इस आकृति में मूल मान्यताएं जैसे कि समग्र ऊंचाई १४ रज्जु, अधोलोकान्त में बाहल्य सात रज्जु, लोक-मध्य में १ रज्जु, ऊर्ध्वलोक के मध्य में ५ रज्जु और ऊर्ध्वलोक के अन्त में १ रज्जु भी सुरक्षित रह गईं। इस प्रकार वीरसेन द्वारा प्रतिपादित लोकाकृति दिगम्बर-परम्परा में सर्वमान्य हो गई।
श्वेताम्बर परम्परा में लोक के विषय में मूल मान्यताओं में उपरोक्त मान्यताओं के अतिरिक्त इन मान्यताओं का भी समावेश होता है : १. लोक का आयाम-विष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) समान ऊंचाई पर समान होना चाहिए । २. लोक की लम्बाई-चौड़ाई में उत्सेघ की अपेक्षा क्रमिक वृद्धि-हानि होनी चाहिए । अर्थात् लोक के ठीक मध्य में स्थित १ रज्जु आयाम-विष्कम्भ वाले क्षुल्लक प्रतर से अधोलोक की ओर जाने पर अधोमुखी तिर्यक् वृद्धि (लम्बाई-चौड़ाई में वृद्धि), ऊर्ध्वलोक की ओर जाने पर ऊर्ध्वमुखी तिर्यक् वृद्धि
और ब्रह्मलोक के पास जहां लोक का बाहुल्य (लम्बाई-चौड़ाई) ५ रज्जु है, वहां से ऊपर जाने पर ऊर्ध्वमुखी तिर्यक् हानि होती है। इसका विवेचन करते हुए कहा गया है कि "क्षुल्लक प्रतर से आंगुल का असंख्यातवां भाग ऊपर जाने पर लोक की तिर्यक् वृद्धि आंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी होती है और तिर्यक् बढ़ा हुआ आंगुल का असंख्यातवां भाग ऊर्ध्वगत आंगुल के असंख्यातवें भाग से कम १. चवदह रज्जु ऊंचे लोक के ठीक मध्यम में, जहां लोक की लम्बाई-चौड़ाई १ रजु मानी गई है, वहां जो आकाश के प्रतरद्वय है, उन्हें क्षुल्लक प्रतर कहते हैं, क्योंकि ये प्रथम घर्मा नामक पृथ्वी के सबसे छोटे प्रतर है । क्षुल्लक-प्रतर से ऊपर या नीचे जाने पर लोक की लम्बाई-चौड़ाई में क्रमशः वृद्धि होती है। लोकप्रकाशकार ने लिखा है :
घर्माघनोदधिघनतनुवातात् विहायसः । अंसख्यभागं चातीत्य, मध्य लोकस्य कीर्तितम् ॥ अस्मादूर्ध्वमधश्चैव, संपूर्णाः सप्त रज्जवः । अथ त्रयाणां लोकानां, प्रत्येकं मध्यमुच्यते ॥ धर्मायां सर्वतः क्षुल्लमत्रास्ति प्रतरद्वयम् । मण्डकाकारमैकैकखप्रदेशात्मकं च तत् ।। रुचकेऽत्र प्रदेशानां, यच्चतुष्कद्वयं स्थितम् । तत्समश्रेणिकं तच्च विज्ञेयं प्रतरद्वयम् ॥ लोकवृद्धिर्ध्वमुखी, तयोरुपरिसंस्थितात् । अधःस्थितात्पुनस्तस्माल्लोकवृद्धिरधोमुखी ॥
- लोकप्रकाश, सर्ग १२, श्लोक ४९ से ५३ । पूर्णंकरज्जुपृथुलात्, क्षुल्लकप्रतरादितः । ऊर्ध्वं गतेऽङ्ालासंख्यभागे तिर्यग्विवर्द्धते ॥ अङ्गुलस्यासंख्यभागः, परमत्रेति भाव्यताम् । ऊर्ध्वगादगुलस्यांशादंशस्तिर्यग्गतो लघुः ॥ एवमधोऽपि । एवं चोर्ध्वलोकमध्यं, पृथुलं पञ्च रजवः । हीयतेऽतस्तथैवोर्चा, रज्जुरेकाऽवशिष्यते ॥ किञ्च-- रज्जुमानाद् द्वितीयस्मात्, क्षुल्लकप्रतराच्चितिः । अधोमुखी च तिर्यक् चाङ्गलासंख्यांशभागिका ।। एवं चाधोलोकमूले, पृथुत्वं सप्त रज्जवः । - वही, सर्ग १२, श्लोक ९९ से १०३ ।
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