Book Title: Agam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Aryarakshit, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 506
________________ श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १५२ है और उनकी निर्मल कीर्ति का उल्लेख किया गया है। यही नहीं, किन्तु वीरसेन के शिष्य जिनसेन का और उनकी रचना पाश्र्वाभ्युदय का भी वहां उल्लेख है। ऐसी परिस्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि हरिवंशपुराण का उल्लेख वीरसेन के पूर्व का है और उक्त पुराणकार वीरसेन की रचना से अपरिचित थे ? इसके विपरीत उक्त उल्लेख से तो यही सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराणकार (जिनसेनाचार्य) वीरसेन की रचना से सुपरिचित और प्रभावित थे । "हां, स्वामी-कार्तिकेयानुप्रेक्षा में अवश्य लोक के उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु की मान्यता सुस्पष्ट है । किन्तु पं० जुगलकिशोरजी ने इसके रचनाकाल के सम्बन्ध में केवल इतना ही कहा है कि वह एक बहुत प्राचीन ग्रन्थ है और वीरसेन से कई शताब्दि पहले बना हुआ है। किन्तु इस ग्रन्थ का वीरसेन से पर्ववर्ती होने का उन्होंने एक भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया है। इस परिस्थिति क्त उलेख को वीरसेन से पूर्ववर्ती मानना सर्वथा निराधार है। “जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति से भी उक्त मान्यता का ग्रहण सुस्पष्ट है। किन्तु इसका समय-निर्णय सर्वथा काल्पनिक है, निश्चित नहीं। मुख्तारजी ने स्वयं कहा है, 'यदि यह कल्पना ठीक हो तो..... जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का समय शक ६७० अर्थात् वि० सं० ८०५ के आसपास का होना चाहिए । किन्तु जब तक कल्पना को निश्चय का रूप न दिया जाये, तब तक उसके आधार पर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति धवला से पूर्वकालीन नहीं स्वीकार की जा सकती।' स्वयं ग्रन्थकार (पद्मनन्दि) के उल्लेखानुसार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की रचना पारियात्र देश के बारानगर में शक्तिकुमार राजा के राज्य-काल में हुई थी। गुहिल वंशीय राजा शक्तिकुमार का एक शिलालेख वैशाख सुदी १, वि० सं० १०३४ का आहाड (उदयपुर के समीप) में मिला है। उसीके समय के और दो लेख जैन मन्दिरों में भी मिले है, किन्तु उनमें संवत् के अंश जाते रहे हैं । पद्मनन्दि (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के कर्ता) ने अपने इस ग्रन्थ की रचना इसी राजा के समय में की थी; अतः यह रचना ११ वीं शताब्दी की हो सकती है।" इस समय चर्चा का फलित यही होता है कि लोक के उत्तर-दक्षिण बाहुल्य की सर्वत्र सात रज्जु की स्थापना आचार्य वीरसेन की ही मौलिक देन है । इसी मान्यता को अधिक पुष्ट प्रमाण मिले है और अधिकांश विद्वानों ने इसको स्वीकार किया है। इससे यह कहा जा सकता है कि धवलाकार वीरसेनाचार्य से पूर्व दिगम्बर-परम्परा में लोक के आकार के विषय में गणित की दृष्टि से कोई सुस्पष्ट मान्यता नहीं थी। उस समय सम्भवतः श्वेताम्बर आचार्यो में मृदंगाकार लोक की कल्पना प्रचलित थी, १. जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलंकावभासते ।। - हरिवंशपुराण, प्रथम सर्ग, श्लोक ३९ । २. यामिताभ्युदये पार्श्वजिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्तिः संकीर्तयत्यस्यौ । - वही, प्रथम सर्ग, श्लोक ४० । ३. यह ग्रन्थ आचार्य पद्मनन्दि द्वारा रचित है और इसका पूरा नाम जम्बूद्वीपपण्णत्तिसंग्रहो है। श्वेताम्बर आगम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र से यह सर्वथा स्वतन्त्र ग्रन्थ है। ४. वारा णयरस्स पहू णरुत्तमो सत्तीभूपालो ॥ - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रह, १३-१६६ । देसम्मि पारियत्ते जिणनवणविभूसिए रम्मे ॥ - वही, १३-१६८ ५. डा० हीरालाल जैन ने तिलोयपण्णत्ति की प्रस्तावना में तिलोयपण्णत्ति की आराधना, मूलाचार, हरिवंश पुराण, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि से तुलना करते हुए लिखा है कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में त्रिलोकसार की अनेक गाथाएं ज्यों की त्यों पाई जाती है; अतः यदि वे उससे भी प्राचीन किसी अन्य ग्रन्थ की नहीं है, तो यह प्रायः निश्चित है कि इसकी रचना त्रिलोकसार के पश्चात् हुई है और त्रिलोकसार का रचना-काल वि०सं० १०५० के लगभग है। अतएव शक्तिकुमार के समय में, विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का रचा जाना ठीक ही है। - देखे, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० २६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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