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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १५० अधस्तन अन्त पर सात रज्जु है, यह भी दोनो परम्पराएं मानती हैं । अधस्तन अन्त से ७ रज्जु ऊपर लोक की एक विमिति १ रज्जु, अधस्तन अन्त के १०६ रज्जु ऊपर लोक की एक विमिति ५ रज्जु
और ऊर्ध्वान्त में (अधस्तन अन्त से १४ रज्जु ऊपर) लोक की एक विमित १ रज्जु है; यह भी दोनों परम्पराओं को मान्य है। जहां दिगम्बर परम्परा लोक के उत्तर-दक्षिण बाहल्य को सर्वत्र ७ रज्जु और लोक के समग्र आकार को ‘आयत-चतुरस्राकृति' वाला मानती है, वहां श्वेताम्बर-परम्परा सर्वत्र समान बाहल्य को स्वीकार नहीं करती है।
दिगम्बर-परम्परा और साहित्य के ऐतिहासिक अध्ययन के प्रकाश में इस समस्या को समझने में काफी सहायता मिल सकती है। लोक के आकार, आयतन आदि विषयों की चर्चा दिगम्बर-परम्परा के अनेक ग्रन्थों में मिलती है। इनमें षट्खण्डागम पर लिखी गई वीरसेनाचार्य कृत धवलाटीका, यतिवृषभाचार्य कृत तिलोयपण्णत्ति पद्मनन्दिकृत जम्बूदीपण्णत्तिसंगहो, पुन्नाट संघीय आचार्य जिनसेन कृत हरिवंशपुराण व स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थ प्राचीनता और प्रस्तुत चर्चा की दृष्टि से उल्लेखनीय है । इस विषय में विद्वानों के दो पक्ष बने है । एक पक्ष का अभिप्राय यह है कि 'लोक का बाहल्य उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात रज्जु है।' इस मान्यता का सर्वप्रथम प्रतिपादन विक्रम की नवमी शताब्दि के महान् गणितज्ञ आचार्य वीरसेन द्वारा हुआ । इससे पूर्व दिगम्बर-परम्परा में इस प्रकार की कोई मान्यता नहीं थी। दूसरा पक्ष इस अभिप्राय को स्वीकार नहीं करता और उक्त मान्यता को प्राचीन मानता है। पण्डित फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री के अनुसार - "लोक के उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रजु की मान्यता को स्थापित करने वाले धवला के कर्ता वीरसेनाचार्य ही है। उनसे पूर्व वैसी मान्यता नहीं थी, जैसा कि राजवार्तिक आदि (पूर्ववर्ती) ग्रन्थों से स्पष्ट है। तिलोयपण्णत्ति में यही वीरसेन द्वारा स्थापित मान्यता स्वीकार की गई है । अत एव यह रचना (तिलोयपण्णति) अपने वर्तमान रूप में वीरसेन के पश्चात्कालीन प्रतीत होती है। इस विषय में ध्यान देने योग्य बात यह है कि धवलाकार के सन्मुख तिलोयपण्णत्ति सूत्र उपस्थित था और फिर भी उन्होंने केवल दो प्राचीन गाथाओं के आधार पर अपने युक्तिबल से लोक को आयतचतुरस्राकार सिद्ध करने का स्पष्ट उल्लेख किया है। यदि उनके सन्मुख उपस्थित तिलोयपण्णत्ति सूत्र में वह मान्यता स्पष्ट होती, जैसी वर्तमान तिलोयपण्णत्ति में है, तो न तो उन्हें उक्त विषय की उतने विस्तार से विवेचना करने की आवश्यकता पडती, जैसी जीवट्ठाण
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ११, किरण १, पृ० ६५-८५ तथा देखें, तिलोयपण्णत्ति, भाग २, प्रस्तावना पृ० १६-१७। २. तिलोयपण्णत्ति यतिवृषभाचार्य द्वारा रचित ग्रन्थ है, जिसमें लोक के उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु बाहुल्य का उल्लेख है (देखें, तिलोयपण्णत्ति १-१४०) । मूल तिलोयपण्णत्ति और वर्तमान उपलब्ध तिलोयपण्णत्ति में काफी अन्तर है, ऐसा विद्वानों का अभिप्राय है (देखें जैन साहित्य और इतिहास, ले० नाथुराम प्रेमी, पृ०६ से २१) । यतिवृषभ का काल अनुमानतः वि०सं०५३५ और वि० सं० ३६६ के बीच माना गया है, जबकि वीरसेनाचार्य वि० सं० ८०६ से वि०सं०८८१ में हुए थे, ऐसी मान्यता है (देखें, वही पृ०१४०) । इस प्रकार यतिवृषभ वीरसेन से पूर्ववर्ती है। किन्तु यतिवृषभ द्वारा रचित तिलोयपण्णत्ति में बाद में काफी परिवर्तन . कर दिये गये है। परिणामस्वरूप तिलोयपण्णत्ति वर्तमान में जिस रूप में है, उसकी रचना वीरसेन के बाद की प्रतीत होती है। ३. धवलाकार ने तात्कालीन 'मृदंगाकार' लोक की मान्यता का गणित के आधार पर किस प्रकार खण्डन किया है और आयतचतुरम्राकार लोक की किस प्रकार स्थापना की है, इसके विस्तृत विवेचन के लिए देखें, परिशिष्ट-४ ।
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