Book Title: Agam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Aryarakshit, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 503
________________ १४९ अब . १ खण्डूक श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण १ रज्जु है, ४ = .. १ घन खण्डूक .. लोक का घनफल = १ ६४ घन रज्जु १५२९६ घन खण्डुक = २३९ घन रज्जु इस प्रकार लोक का घनफल २३९ घन रज्जु होता I उक्त गणना के द्वारा लोक का जो घनफल निकाला गया है, वह लोक का वास्तविक घनफल नहीं है, ऐसा लगता है । ग्रन्थकारों ने उसको 'वर्गित लोकमान' ऐसा अभिधान दिया है।' 'वर्गित लोकमान' से उसका वास्तविक तात्पर्य क्या है, यह कहना कठिन है । किन्तु लोक के 'घनीकृत लोकमान' की चर्चा भी उन्होंने की है और स्पष्ट रूप से लोक का घनफल ३४३ घन रज्जु स्वीकार किया है । जैसे कि लोकप्रकाशकार विनयविजय गणी ने लिखा है : " इस घनीकृत लोक के तीनसौ तैतालीस घनरज्जु तत्त्वज्ञों द्वारा माने गए हैं । " २ Jain Education International घनीकृत लोक के ३४३ घन - रज्जु किस प्रकार होते हैं, इसके विषय में जो विवेचन दिया गया है, वह गाणितिक दृष्टिकोण से सम्पूर्ण नहीं लगता । उन्होंने समग्र लोक के, जो कि ऊंचाई में १४ रज्जु है और विविध चौडाई - लम्बाई वाला है, अलग-अलग खण्ड करके पुनः जोडने से घनचतुरस्र की आकृति का निर्माण करने का प्रयत्न किया है, जिसकी प्रत्येक भुजा ७ रज्जु है । किन्तु वे स्वीकार करते है कि "लम्बाई और चौडाई छः रज्जु से अधिक, रज्जु का असंख्यातवां भाग जितनी है और इन्हें व्यवहार में ७ रज्जु माना जा सकता है; क्योंकि व्यवहार नय की दृष्टि में कुछ न्यून वस्तु भी पूर्ण मानी जाती है । इस तरह लम्बाई और चौडाई सात रज्जु से कुछ न्यून होने पर भी व्यवहार नय में इन्हें सम्पूर्ण सात रज्जु मान सकते है' इस प्रकार की गणना से किये गाणितिक विवेचन के द्वारा लोक के आकार और विभिन्न वैमितिक मानों का यथार्थ ज्ञान नहीं मिल सकता । दो परम्पराओं का मतभेद और उसकी समीक्षा उपरोक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर- परम्परा, लोक के कुल आयतन के विषय में एकमत हैं ही कि लोक का आयतन ३४३ घन रज्जु है । दोनों लोक के आकार के विषय में । लोक की ऊंचाई १४ रज्जु । लोक की दो विमितियां (लम्बाई और चौडाई) लोक के - परम्पराओं में मुख्य मतभेद रह जाता है है, यह भी दोनों परम्पराओं को मान्य है १. लोकप्रकाश, सर्ग १२, श्लोक ११० से ११५ । २. अस्मिन् घनीकृते लोके प्रज्ञप्ता घनरज्जवः । त्रिचत्वारिंशताढ्यानि शतानि त्रीणि तात्त्विकैः । - लोकप्रकाश, १२-१३७ । ३. देखें, वही सर्ग १२, श्लोक ११६ से १३२ । ४. सर्वस्यास्य चतुरस्रीकृतस्य भवति क्वचित् । रज्ज्वसंख्येयभागाढ्या बाहल्यं रज्जवो हि षट् ॥ तथापि व्यवहारेण बाहल्यं सप्त रज्जवः । मन्यते व्यवहारो हि वस्तुन्यूनेऽपि पूर्णताम् ॥ विष्कम्भायामतोऽप्येवं देशोनाः सप्त रज्जवः । व्यवहारेण विज्ञेयाः संपूर्णा सप्त रज्जवः ॥ - वही, १२-१३३ से १३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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