Book Title: Agam 45 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02
Author(s): Aryarakshit, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 505
________________ १५१ श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण क्षेत्रानुगम के पृ० १० से २२ तक की गई है और न उन्हें स्पर्शानुगम के पृष्ठ १५ पर यह कहने का साहस होता कि रज्जुच्छेदों के प्रमाण की परीक्षा विधि ऊन्होंने उसी प्रकार युक्तिबल से स्थापित की है, जिस प्रकार असंख्येयावलि प्रमाण अन्तमुहूर्त की व आयत चतुरस्रलोक की। रज्जुच्छेदों के सम्बन्ध में उन्हें अपने मतानुकूल तिलोयपण्णत्ति सूत्र प्राप्त हो गया था, अत एव उन्होंने उसका स्पष्टोल्लेख भी कर दिया है। तब कोई कारण नहीं कि यदि उन्हें उसी सूत्र-ग्रन्थ में आयतचतुरस्र लोक का भी कोई संकेत या आधार, मिलता तो, वे उसका प्रमाण न देते। क्योंकि उस प्रमाण की तो उन्हें बडी ही आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति उन्होंने केवल यह कह कर की है कि 'लोक के उत्तर-दक्षिण भाग में सर्वत्र सात रज्जु का बाहल्य करणानुयोग के विरुद्ध नहीं है, क्योंकि सूत्र में न तो उसका विधान है और न निषेध। इससे बिल्कुल स्पष्ट है कि धवलाकार को ज्ञात साहित्य में उक्त मान्यता का सर्वथा अभाव था । आज भी वीरसेन से पूर्व निश्चितकालीन एक भी उल्लेख उस मान्यता का हमें प्राप्त नहीं है और इसमें तो सन्देह ही नहीं रहता कि वीरसेन के सन्मुख उपस्थित तिलोयपण्णत्ति सूत्र में आयत चतुरस्राकार लोक का समर्थन करने वाला कोई उल्लेख नहीं था ।" प्रो० हीरालाल जैन ने तिलोयपण्णत्ति के रचना-काल के विषय में निष्कर्ष रूप में लिखा है। इस ऊहापोह का तात्पर्य यह है कि तिलोयपण्णत्ति की रचना सर्वनन्दि कृत लोकविभाग के पश्चात् तथा वीरसेनाचार्य कृत धवला से पूर्व अर्थात् शक ३८० और ७३८ (वि०सं०४९५ और ८७३) के बीच हुई यह अनुमान किया जा सकता है। इस रचना में परिवर्तन और संस्कार होकर वर्तमान रूप धवला की रचना के पश्चात् किसी समय उत्पन्न हुआ होगा।" दूसरे पक्ष की ओर से पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने अपने लेख के कुछ एक प्रमाण उपस्थित किये है और उसका निराकरण भी प्रथम पक्ष की ओर से हुआ है। प्रो० हीरालाल जैन इस विषय में लिखते है : “इसके (उक्त मान्यता के) विरुद्ध पं० जुगलकिशोरजी ने तीन उल्लेख उपस्थित किये है, जो उनके मत से वीरसेन से पूर्वकालीन होते हुए लोक को उत्तर-दक्षिण सर्वत्र ७ रज्जु प्रमाणित करते है । उनमें से एक उल्लेख जिनसेन कृत हरिवंश पुराण का है। दूसरा स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा का है और तीसरा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का।" इसका निराकरण करते हुए प्रो० हीरालाल जैन ने लिखा है५“हरिवंशपुराण में लोक को चतुरस्रक तो कहा है, परन्तु उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु की मान्यता का वहां कोई पता नहीं है । चतुरस्रक का अभिप्राय समचतुरस्रक भी हो सकता है । यदि चतुरस्रक कहने मात्र से ही आयतचतुरस्रक की मान्यता का अनुमान किया जा सकता हो, तो हरिवंश पुराण में स्पष्टत: वीरसेन को गुरु कहकर स्मरण किया गया है। उन्हें कवि चक्रवर्ती की उपाधि भी दी गई १. ण च सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिओगसुत्तविरुद्धं, तस्स तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो । - धवला, भाग ४, पृ०२२ । २. तिलोयपण्णत्ति, भाग २, प्रो० हीरालाल जैन द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ० २० । ३. वही, पृ० १६, १७ । ४. जिनसेनाचार्य पुन्नाट संघ के आचार्य थे। हरिवंश पुराण की रचना वि०सं० ८४० में हुई थी। एक अन्य आचार्य जिनसेन जो कि वीरसेनाचार्य के शिष्य थे, इनसे भिन्न है। ये जिनसेनाचार्य, वीरसेनाचार्य और जिनसेनाचार्य (वीरसेनाचार्य के शिष्य) प्रायः समकालीन थे। (देखें, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १३९-१४०) । ५. तिलोयपण्णत्ति, भाग-२, प्रस्तावना, पृ० १६, १७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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