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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिषम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण
में समान रूप से मिलता है।
श्वेताम्बर-परम्परा की मूल मान्यताओं की चर्चा की जा चुकी है और नवीन आकृति से स्पष्ट हो जाता है, कि श्वेताम्बर-परम्परा की सभी मूल मान्यताएं नवीन आकृति में सुरक्षित हैं।
३. इस नवीन आकृति का आधार पूर्णरूपेण आधुनिक गणित में मान्य विधियां हैं।
४. आकृति की वक्रता (Curvature) आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं के साथ सुसंगत होती है और इस सदृशता के आधार पर लोक की भूमिति का युक्लिडियेतर होना असम्भव नहीं माना जा सकता ।
इन विशेषताओं के अतिरिक्त गणित और लोक के सम्बन्ध से अन्य मान्यताओं की पुष्टि भी इससे होती है । रजु का अंकीकरण
रज्जु जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है । जैन दर्शन में जहां लोक के सम्बन्ध से दूरी का विवेचन हुआ है, वहां अधिकांशतया ‘रज्जु' शब्द का उपयोग हुआ है। ‘रज्जु' को हम जैन ज्योतिभौतिकी (strophysics) का क्षेत्र-मान कह सकते हैं । व्यवहारिक भाषा में एक रज्जु का मान असंख्यात योजन बताया गया है । कुछ विद्वानों वे रज्जु को अंको के द्वारा व्यक्त करने का- अंकीकरण करने का प्रयत्न किया है। इनमें पाश्चात्य विद्वान् और गणितज्ञ सी.टी.कोलब्रूक (C.T.Colebrook) का नाम उल्लेखनीय है । उन्होंने जैन दर्शन के गाणितिक तत्त्वों के अध्ययन के आधार पर 'रज्जु' के विषय में परिभाषा दी है। कोलक के अनुसार 'रज्जु' का मान निम्नोक्त परिभाषा में दिया गया है।
“२,०५७,१५२ योजन प्रतिक्षण की गति से निरन्तर चलने वाला देव छः महीने में जितनी दूरी तय करता है, उसे एक रज्जु कहा जातै है।"३
इस कथन में केवल रज्जु की व्याख्या दी गई है । इसका उपयोग करके श्री जी० एल० जैन ने रज्जु के अंकीकरण का प्रयत्न किया है । श्री जैन ने प्रथम तो आइन्स्टीन के विश्व के आयतन और जैन दर्शन में मान्य लोक के आयतन का समीकरण करके निम्नोक्त प्रकार से रज्जु का मान निकाला है :
'आइन्स्टीन के विश्व की त्रिज्या = १,०६८,०००,००० प्रकाश-वर्ष जहां एक प्रकाश वर्ष
___ = ५.८८ x १०१२ माईल है।
१. जैन मान्यता में लोक की भूमिति के युक्लिडियेतर होने की संभावना के विषय में विस्तृत चर्चा के लिए देखें, परिशिष्ट४ । २. विस्तृत विवेचन के लिए देखें, परिशिष्ट - ४ । ३. इस परिभाषा को जर्मन विद्वान् फोन ग्लेसनहाप ने अपनी जर्मन भाषा में लिखी हुई पुस्तक देर जैनिजिमुस में पृ०२२२ पर उद्धृत किया है । कोलब्रूक ने किस आधार पर यह परिभाषा दी है, इसका वहां कोई उल्लेख नहीं है। ४. देखें, कोस्मोलोजी ओल्ड एण्ड न्यू, पृ० ११६-११७ । ५. विश्व-त्रिज्या का यह मान वर्तमान में वैज्ञानिकों को मान्य नहीं रहा है। इसकी चर्चा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत हो चुकी है, देखे; पृष्ठ ५९, ६०।
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