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श्री अनुयोगद्वारसूत्रस्य द्वितीयविभागस्य अष्टमं परिशिष्टम् - विश्वप्रहेलिकानुसारेण
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हाथ कटि तट पर रख कर जैसे कोई पुरुष वैशाख संस्थान की तरह ( पैर चौडे रखकर ) खडा हो, वैसा ही सर्वथा यह लोक है । इस प्रकार विविध उपमाओं के द्वारा लोक का आकार स्पष्ट किया गया है । लोक के 'आयतन' का विवेचन गाणितिक होने से लोक का आकार कहां किस प्रकार का है, इसकी स्पष्ट कल्पना गाणितिक विवेचन के द्वारा हो सकती है ।
विश्व कितना बडा है ?
लोकाकाश सान्त और ससीम है; अतः उसका निश्चित 'आयतन' माना गया है। इसके गाणितिक विवेचन के अतिरिक्त इसको भी उपमा के द्वारा समझाया गया है । "यह लोक कितना बड़ा है ? "२ गौतम के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा- “ गौतम ! यह लोक बहुत बड़ा है । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊर्ध्व और अधो दिशाओं में असंख्यात योजन का लम्बा-चौड़ा कहा गया है ।" इसी भाव का स्पष्टीकरण एक काल्पनिक उदाहरण द्वारा किया गया है । इस दृष्टान्त में देवों की 'शीघ्र गति' के आधार पर लोक की बृहत्ता समझाई गई है । जैन दर्शन के अनुसार १,००,००० योजन व्यास और ३,१६,२२७ योजन ३ कोस १२८ धनुष्य १३ ॥ अंगुल और कुछ अधिक परिधि वाले जम्बूद्वीप मध्य में १ लाख योजन ऊँचा मेरू पर्वत है । समतल भूमि से नीचे इसकी ऊँचाई के १००० योजन और ९९००० योजन समतल भूमि से ऊपर । इस पर्वत के ऊपर ४० योजन ऊंची चूलिका है ।" अब कल्पना की जाती है कि जम्बूद्वीप की परिधि पर चार दिक्कुमारियां (देवियां ) अपनी-अपनी दिशाओं में बाहर की ओर मुख करके खडी है और चार बलिपिण्डों को उन-उन दिशाओं में एक साथ फेंकती
। चूलिका के ऊपर छः देव खडे हैं । उनमें से कोई एक देव अपनी शीघ्र गति से नीचे आकर पृथ्वी पर पडने से पहले ही उन चारों बलिपिण्डों को ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार की शीघ्र गति से चलने वाले वे छः देव लोक का अन्त पाने के लिए चलते हैं । तिर्यक्-लोक, जो १ रज्जु' लम्बा चौडा है, के मध्य में मेरुपर्वत है । छः देव क्रमशः मेरु से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा
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१. नरं वैशाखसंस्थानस्थितपादं कटीतटे । न्यस्तहस्तद्वयं सर्वदिक्षु लोकोऽनुगच्छति ॥ - लोकप्रकाश; १२ - ३ । २. केमहालए णं भन्ते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! महतिमहालए लोए पण्णत्ते, पुरच्छिमेणं असंखेज्जाओ जोअणकोडाकोडिओ, दाहिणं असंखिज्जाओ एवं पच्चत्थिमेणवि एवं उत्तरेणवि, एवं उड्ढपि, अहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडिओ आयामविक्खंभेणं । भगवती सूत्र, १२-७-४५७ । ३. भगवती सूत्र, ११ - १०-४२१ । ४. परिधि का यह मूल्य व्यास को १० के वर्गमूल द्वारा गुणने पर निकाला गया है । युक्लिडीय भूमिति के नियमानुसार परिधि व्यास से ग गुणी होती है, जहां का मूल्य करीब ३.१४२... होता है । यहां लिया गया मूल्य इस मूल्य से कुछ अधिक है । युक्लिडियेतर भूमितियों के का मूल्य ३.९४२.... से अधिक अथवा कम भी हो सकता है। इसकी विस्तृत चर्चा के लिए देखें परिशिष्ट - ४ । ५. सहस्रान्नवनवतिं योजनानां स उन्नतः । योजनानां सहस्रं चावगाढो वसुधान्तरे । लक्षयोजनमानोऽसौ सर्वाग्रेण भवेदिति । चत्वारिंशदधिकानि चूलाया योजनानि तु ॥ - लोकप्रकाश, १८-१५, १६ । ६. एक अभिमत के अनुसार दिक्कुमारियां जम्बूद्वीप की परिधि पर स्थित आठ योजन ऊंची जगती ( दीवार) पर खडी है । (देखें, लोकप्रकाश, १२-१४५ का मोतीचंद ओधवजी शाह द्वारा किया गया अनुवाद) । ७. तिर्यक् लोक समग्र लोक के लगभग मध्य में है। वस्तुतः तिर्यक्- लोक के ऊपर का भाग (ऊर्ध्व लोक) सात रज्जु से कुछ कम है, जबकि नीचे का भाग (अधो लोक) सात रज्जु से कुछ अधिक है । ८. रज्जु की व्याख्या और गणना के लिए देखें, पृ० १२५ ।
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