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उत्तराध्ययन सूत्र
१५. एवं धम्मं विउक्कम्म
अहम्मं पडिवज्जिया। बाले मच्चु-मुहं पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई॥
१६. तओ से मरणन्तमि
बाले सन्तस्सई भया। अकाम-मरणं मरई धुत्ते व कलिना जिए।
१७. एयं अकाम-मरणं
बालाणं तु पवेइयं। एत्तो सकाम-मरणं
पण्डियाणं सुणेह मे।। १८. मरणं पि सपुण्णाणं
जहा मेयमणुस्सुयं। विप्पसण्णमणाघायं संजयाणं वुसोमओ॥
इसी प्रकार जो धर्म का उल्लंघन कर अधर्म को स्वीकार करता है, वह मृत्यु के मुख में पड़ा हआ बालजीव शोक करता है, जैसे कि धुरी के ट्टने पर गाड़ीवान् शोक करता है। ____ मृत्यु के समय वह अज्ञानी आत्मा परलोक के भय से संत्रस्त होता है। एक ही दाव में सब कुछ हार जाने वाले धूर्त-जुआरी की तरह शोक करता हुआ अकाम मरण से मरता है।
यह अज्ञानी जीवों के अकाम मरण का प्रतिपादन किया है। अब यहाँ से आगे पण्डितों के सकाम मरण को मुझसे सुनो___ जैसा कि मैंने परम्परा से यह सुना है किसंयत और जितेन्द्रिय पुण्यात्माओं का मरण अतिप्रसन्न (अनाकुल) और आधातरहित होता है।
यह सकाम मरण न सभी भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को । गृहस्थ नाना प्रकार के शीलों से सम्पन्न होते हैं, जबकि बहुत से भिक्षु भी विषम-अर्थात् विकृत शीलवाले होते हैं।
कुछ भिक्षुओं की अपेक्षा गहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं। किन्तु शुद्धाचारी साधुजन सभी गृहस्थों से संयम में श्रेष्ठ हैं।
१९. न इमं सव्वेसु भिक्खूसु
न इमं सव्वेसुऽगारिसु। नाणा-सीला अगारत्था । विसम-सीला यभिक्खुणो॥
२०. सन्ति एगेहि भिक्खूहिं
गारत्या संजमुत्तरा। गारत्येहि य सव्वेहिं साहवो संजमुत्तरा।
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