Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 476
________________ २४- अध्ययन अध्ययन २४ कहा गाथा ३–यहाँ पाँच समिति और तीनगुप्ति -- इन आठों को ही समिति है । प्रश्न है, ऐसा क्यों ? शात्याचार्य ने समाधान प्रस्तुत किया है कि गुप्तियाँ प्रवीचार और अप्रवीचार दोनों रूप होती हैं, अर्थात् एकान्त निवृत्तिरूप ही नहीं, प्रवृत्तिरूप भी होती हैं, अतः प्रवृत्ति अंश की अपेक्षा से उन्हें भी समिति कह दिया है । समिति में नियमत: गुप्ति होती है, क्योंकि उसमें शुभ में प्रवृत्ति के साथ जो अशुभ से निवृत्तिरूप अंश हैं, वह नियमत: गुप्ति का अंश ही है । गुप्ति में प्रवृत्तिप्रधान समिति की भजना है 1 ४४३ अध्ययन २५ गाथा १६ – पूछे गए चार प्रश्नों के उत्तर इस प्रकार हैं (१) वेदों का मुख अर्थात् सारभूत प्रतिपाद्य अग्निहोत्र है । अग्निहोत्र का हवन आदि प्रचलित अर्थ विजयघोष को ज्ञात ही था । किन्तु विजय घोष, जय घोष मुनि से मालूम करना चाहता था कि उनके अभिमत में अग्निहोत्र क्या है ? मुनि का अग्निहोत्र एक अध्यात्म भाव है, जिसमें तप, संयम, स्वाध्याय, धृति, सत्य और अहिंसा आदि का समावेश होता है । यह भाव अग्निहोत्र ही जयघोषमुनि ने विजयघोष को समझाया है। इसी अग्निहोत्र में मन के बिकार स्वाहा होते हैं । (२) दूसरा प्रश्न है - यज्ञ का मुख - उपाय ( प्रवृत्तिहेतु) क्या है ? उत्तर में यज्ञ का मुख अर्थात् उपाय यज्ञार्थी बताया गया है । यह भी अपनी परम्परा के प्रचलित अर्थ में विजय घोष जानता ही था। मुनि ने आत्मयज्ञ के सन्दर्भ में अपने बहिर्मुख इन्द्रिय और मन को असंयम से हटाकर संयम में केन्द्रित करने वाले आत्मसाधक को ही सच्चा यज्ञार्थी (याजक) बताया है 1 (३) तीसरा प्रश्न कालज्ञान से सम्बन्धित है । स्वाध्याय आदि समयोचित कर्तव्य के लिए काल का ज्ञान श्रमण और ब्राह्मण दोनों ही परम्पराओं के लिए आवश्यक था । और वह ज्ञान स्पष्टतः नक्षत्रों से होता था । चन्द्र की हानि - वृद्धि से तिथियों का बोध अच्छी तरह हो जाता था । अतः मुनि ने ठीक ही उत्तर दिया है कि नक्षत्रों में मुख्य चन्द्रमा है । इस उत्तर की तुलना गीता (१० । २१) से की जा सकती है— 'नक्षत्राणामहं शशी ।' (४) चौथा प्रश्न था धर्मों का मुख अर्थात् उपाय (आदि कारण) क्या है ? धर्म का प्रकाश किससे हुआ ? उत्तर में जयघोष मुनि ने कहा है— धर्मों का मुख (आदिकारण) काश्यप है। वर्तमान कालचक्र में आदि काश्यप ऋषभदेब ही धर्म के आदि प्ररूपक, आदि उपदेष्टा हैं । भगवान् ऋषभदेव ने वार्षिक तप का पारणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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