Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 487
________________ ४५४ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण (५) शम्बूकावर्ता - शंख के आवर्तों की तरह गाँव के बाहरी भाग से भिक्षा लेते हुए अन्दर में जाना अथवा गाँव के अन्दर से भिक्षा लेते हुए बाहर की ओर आना । शम्बूकावर्ता के ये दो प्रकार हैं । (६) आयतंगत्वा - प्रत्यागता — गाँव की सीधी सरल गली में अन्तिम घर तक जाकर फिर वापस लौटते हुए भिक्षा लेना । इसके दो भेद हैं-जाते समय गली की एक पंक्ति से और आते समय दूसरी पंक्ति से भिक्षा लेना । अथवा एक ही पंक्ति से भिक्षा लेना, दूसरी पंक्ति से नहीं । गाथा २५--- आठ प्रकार के गोचराय में पूर्वोक्त पेटा आदि छह प्रकार और शम्बूकावर्ता तथा आयतंगत्वा प्रत्यागता के वैकल्पिक दो भेद मिलाने से गोचराग्र के आठ भेद हो जाते हैं । सात एषणाएँ (१) संसृष्टा - खाद्य वस्तु से लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना । (२) असंसृष्टा - अलिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना । (३) उद्धृता — गृहस्थ के द्वारा अपने प्रयोजन के लिए पकाने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ आहार लेना । (४) अल्पलेपा—- चने आदि अल्प लेप की वस्तु लेना 1 (५) अवगृहीता-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना । (६) प्रगृहीता - परोसने के लिए कड़छी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना । (७) उज्झितधर्मा - परिष्ठापन के योग्य अमनोज्ञ आहार लेना । गाथा ३६ - यहाँ व्युत्सर्ग तप में कायोत्सर्ग की ही गणना की है। प्रावरण एवं पात्र आदि उपधि का विसर्जन भी व्युत्सर्ग तप है। कषाय का व्युत्सर्ग भी व्युत्सर्ग में गिना गया है। काय मुख्य है। अतः काय के व्युत्सर्ग में सभी उत्सर्गों का समावेश हो जाता I कायोत्सर्ग देहभाव का उत्सर्ग है । वह त्रिगुप्तिरूप है। स्थान- कायगुप्ति, मौन - वचन गुप्ति, तथा ध्यान- मन की प्रवृत्ति का एकीकरण है, अत: यह मनोगुप्ति है। गाथा ३०- - साधना की यात्रा बड़ी दुर्गम है। अतः सावधान रहते हुए भी कुछ दोष लग जाते हैं । उनको दूर कर अपने को पुनः विशुद्ध बना लेना, प्रायश्चित हैं। उसके दस प्रकार हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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