Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 499
________________ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण उक्त तेईस अध्ययनों के कथनानुसार संयमी जीवन न होना, दोष है । चौबीस देव यहाँ रूप का अर्थ एक है। अतः पूर्वोक्त तेईस संख्या में एक अधिक मिलाने से रूपाधिक का अर्थ २४ होता है । असुरकुमार आदि दश भवनपति, भूत-यक्ष आदि आठ व्यन्तर, सूर्य-चन्द्र आदि पाँच ज्योतिष्क और एक वैमानिक देव – इस प्रकार कुल चौबीस जाति के देव हैं। इनकी प्रशंसा करना भोग जीवन की प्रशंसा करना है और निन्दा करना द्वेष भाव है, अतः मुमुक्षु को तटस्थ भाव ही रखना चाहिए । समवायांग में २४ देवों से २४ तीर्थंकरों को ग्रहण किया गया है I पाँच महाव्रतों की २५ भावनाएँ प्रथम अहिंसा व्रत की ५ भावनाएँ ४६६ 1 १. ईर्या समिति = उपयोग पूर्वक गमनागमन करे । २. आलोकित पानभोजन = देखभालकर प्रकाशयुक्त स्थान में आहार करे । ३. आदान निक्षेप समिति=विवेक पूर्वक पात्रादि उठाए तथा रक्खे । ४. मनोगुप्ति = मन का संयम । ५. वचन गुप्ति = वाणी का संयम | द्वितीय सत्य महाव्रत की ५ भावनाएँ । १. अनुविचिन्त्य भाषणता = विचारपूर्वक बोलना, २. क्रोधविवेक = क्रोध का त्याग, ३. लोभविवेक = लोभ का त्याग, ४. भय - विवेक = भय का त्याग, ५. हास्यविवेक = हँसी मजाक का त्याग । तृतीय अस्तेय महाव्रत की ५ भावना - १. अवग्रहानुज्ञापना = अवग्रह अर्थात् वसति लेते समय उसके स्वामी को अच्छी तरह जानकर आज्ञा माँगना । २. अवग्रह सीमापरिज्ञानता = अवग्रह के स्थान की सीमा का यथोचित ज्ञान करना। ३. अवग्रहानुग्रहणता = स्वयं अवग्रह की याचना करना अर्थात् वसतिस्थ तृण, पट्टक आदि अवग्रह स्वामी की आज्ञा लेकर ग्रहण करना । ४. गुरुजनों तथा अन्य साधर्मिकों की आज्ञा लेकर ही सबके संयुक्त भोजन में से भोजन करना । ५. उपाश्रय में पहले से रहे हुए साधर्मिकों की आज्ञा लेकर ही वहाँ रहना तथा अन्य प्रवृत्ति करना । चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की ५ भावनाएँ— Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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