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३५-अध्ययन
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परन्तु यहाँ केवला अर्थात् शुद्ध शुक्ल लेश्या को छोड़ दिया है। क्योंकि सयोगी केवली की उत्कृष्ट केवलपर्याय नौ वर्ष कम पूर्वकोटि है। और सयोगकेवली को एक जैसे अवस्थित भाव होने से उनकी शुक्ल लेश्या की स्थिति भी नववर्षन्यून पूर्वकोटि ही है।
गाथा ५२–मूल पाठ में गाथाओं का व्यत्यय जान पड़ता है। ५२ के स्थान पर ५३ वीं और ५३ के स्थान ५२ वीं गाथा होनी चाहिए। क्योंकि ५१ वीं गाथा में आगमकार ने भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक सभी देवों की तेजोलेश्या के कथन की प्रतिज्ञा की है, किन्तु ५२ वी गाथा में केवल वैमानिक देवों की ही तेजोलेश्या निरूपित की है । जबकि ५३ वें श्लोक में प्रतिपादित लेश्या का कथन चारों ही प्रकार के देवों की अपेक्षा से है। टीकाकारों ने भी इस विसंगति का उल्लेख किया है । 'इयं च सामान्योपक्रमेऽपि वैमानिकनिकायविषयतया नेयासर्वार्थसिद्धि।
गाथा ५८-५९–प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा से छहों ही लेश्याओं के प्रथम समय में जीव का परभव में जन्म नहीं होता है, और न अन्तिम समय में ही । लेश्या की प्राप्ति के बाद अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त ही शेष रहने पर जीव परलोक में जन्म लेते हैं। ___भाव यह है कि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्ति काल में अतीत भव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त काल तक होना, आवश्यक है । देवलोक और नरक में उत्पन्न होने वाले मनुष्य और निर्यंचों को मृत्युकाल में अन्तर्मुहूर्त काल तक अग्रिम भव की लेश्या का सद्भाव होता है। मनुष्य और तिर्यंच गति में उत्पन्न होने वाले देव नारकों को भी मरणानन्तर अपने पहले भव की लेश्या अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है। अतएव आगम में देव और नारकों की लेश्या का पहले और पिछले भव के लेश्या-सम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्तों के साथ स्थितिकाल बताया गया है। प्रज्ञापनासूत्र में कहा है-“जल्लेसाई दवाइं आयइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ।"
अध्ययन ३५ गाथा ४-६–भिक्षु को किवाड़ों से युक्त मकान में रहने की मन से भी इच्छा न करनी चाहिए। यह उत्कृष्ट साधना का, अगुप्तता का और अपरिग्रह भाव का सूचक है।
श्मशान में रहने से अनित्य भावना एवं वैराग्य की जागृति रहती है। चिता में जलते शवों को और दग्ध अस्थियों को देखकर किस साधक को विषय भोगों से विरक्ति न होगी।
वृक्ष के नीचे रहना भी महत्त्वपूर्ण है। प्रतिकुलताओं को तो सहना होता ही है । बौद्धग्रन्थ विशुद्धि मार्ग में कहा है कि वृक्ष के नीचे रहने से साधक को हर
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