Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 513
________________ ४८० उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण 'गर्भ व्युत्क्रान्तिक' शब्द में व्युत्क्रान्तिका अर्थ उत्पत्ति है। गाथा १८०-स्थलचर चतुष्पदों में एकखुर अश्व आदि हैं, जिनका खर एक है, अखण्ड है, फटा नहीं है। द्विखर गाय आदि हैं, जिनके खुर फटे हुए होने से दो अंशों में विभक्त हैं। गण्डी अर्थात् कमलकर्णिका के समान जिनके पैर वृत्ताकार गोल हैं, वे हाथी आदि गण्डी पद हैं। नखसहित पैर वाले सिंह आदि सनख पद हैं। गाथा १८१ --भुजाओं से परिसर्पण (गति) करने वाले नकुल, मूषक आदि भुज परिसर्प हैं। तथा उर (वक्ष, छाती) से परिसर्पण करने वाले सर्प आदि उर-परिसर्ग हैं। गाथा १८५-स्थलचरों की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व तीन पल्योपम की बताई है, उसका अभिप्राय यह है कि पल्योपम आयु वाले तो मरकर पुन: वहीं पल्योपम की स्थिति वाले स्थलचर होते नहीं हैं। मरकर देवलोक में जाते हैं। पूर्व कोटि आयु वाले अवश्य इतनी ही स्थिति वाले के रूप में पुन: उत्पन्न हो सकते हैं। वे भी सात आठ भव से अधिक नहीं। अत: पूर्वकोटि आयु के पृथक्त्व भव ग्रहण कर अन्त में पल्योपम आयु पाने वाले जीवों की अपेक्षा से यह उत्कृष्ट कायस्थिति बताई है। गाथा १८८-चर्म की पंखों वाले चमगादड़ आदि चर्म पक्षी हैं। और रोम की पंखों वाले हंस आदि रोम पक्षी हैं। समुद्ग अर्थात् डिब्बा के समान सदैव बन्द पंखों वाले समुद्ग पक्षी होते हैं। सदैव फैली हई पंखों वाले विततपक्षी कहलाते हैं। ***** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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