Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 497
________________ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण उक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार साधुधर्म की साधना करने का विधान है। ४६४ बीस असमाधि स्थान १. द्रुतद्रुत चारित्व = जल्दी जल्दी चलना | २. अप्रमृज्य चारित्व = बिना पूँजे रात्रि आदि के अन्धकार में चलना । ३. दुष्प्रमृज्य चारित्व = बिना उपयोग के प्रमार्जन करना । ४. अतिरिक्त शय्यासनिकत्व = अमर्यादित शय्या और आसन रखना । रानिक पराभव = गुरुजनों का अपमान करना । ५. ६. स्थविरोपघात = स्थविरों का उपहनन = अवहेलना करना । ७. भूतोपघात =भूत अर्थात् जीवों का उपहनन ( हिंसा) करना । ८. संज्वलन = प्रतिक्षण यानी बार-बार क्रोध करना । ९. दीर्घकोप - चिरकाल तक क्रोध रखना । - १०. पृष्ठमांसिकत्व - पीठ पीछे निन्दा करना । ११. अधिक्ष्णावभाषण= सशंक होने पर भी निश्चित भाषा बोलना । १२. नवाधिकरण करण= नित्य नए कलह करना । १३. उपशान्तकलहोदीरण = शान्त हुए कलह को पुनः उत्तेजित करना । १४. अकालस्वाध्याय = अकाल में स्वाध्याय करना । १५. सरजस्कपाणि- भिक्षाग्रहण = सचित्तरजसहित हाथ आदि से भिक्षा लेना । १६. शब्दकरण= पहर रात के बाद जोर से बोलना । १७. झंझाकरण= गणभेदकारी अर्थात् संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना । १८. कलहकरण=आक्रोश आदि रूप कलह करना । १९. सूर्यप्रमाणभोजित्व = दिन भर कुछ न कुछ खाते-पीते रहना । २०. एषणाऽसमितत्व = एषणा समिति का उचित ध्यान न रखना । इक्कीस शबल दोष १. हत कर्म - हस्त मैथुन करना । २. मैथुन = स्त्री स्पर्श आदि रूप मैथुन करना । ३. रात्रि भोजन = रात्रि में भोजन लेना और करना । ४. आधाकर्म = साधु के निमित्त से बनाया गया भोजन लेना । ५. सागारिकपिण्ड = शय्यातर अर्थात् स्थानदाता का आहार लेना । ६. औद्देशिक= साधु के या याचकों के निमित्त बनाया गया, क्रीत खरीदा हुआ, आहत = स्थान पर लाकर दिया हुआ, प्रामित्य = उधार लिया हुआ, आच्छिन्न = छीन कर लाया हुआ आहार लेना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514