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उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण
उक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार साधुधर्म की साधना करने का
विधान है।
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बीस असमाधि स्थान
१. द्रुतद्रुत चारित्व = जल्दी जल्दी चलना |
२. अप्रमृज्य चारित्व = बिना पूँजे रात्रि आदि के अन्धकार में चलना । ३. दुष्प्रमृज्य चारित्व = बिना उपयोग के प्रमार्जन करना ।
४. अतिरिक्त शय्यासनिकत्व = अमर्यादित शय्या और आसन रखना । रानिक पराभव = गुरुजनों का अपमान करना ।
५.
६. स्थविरोपघात = स्थविरों का उपहनन = अवहेलना करना ।
७. भूतोपघात =भूत अर्थात् जीवों का उपहनन ( हिंसा) करना । ८. संज्वलन = प्रतिक्षण यानी बार-बार क्रोध करना ।
९. दीर्घकोप - चिरकाल तक क्रोध रखना ।
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१०. पृष्ठमांसिकत्व - पीठ पीछे निन्दा करना ।
११. अधिक्ष्णावभाषण= सशंक होने पर भी निश्चित भाषा बोलना ।
१२. नवाधिकरण करण= नित्य नए कलह करना ।
१३. उपशान्तकलहोदीरण = शान्त हुए कलह को पुनः उत्तेजित करना ।
१४. अकालस्वाध्याय = अकाल में स्वाध्याय करना ।
१५. सरजस्कपाणि- भिक्षाग्रहण = सचित्तरजसहित हाथ आदि से भिक्षा लेना ।
१६. शब्दकरण= पहर रात के बाद जोर से बोलना ।
१७. झंझाकरण= गणभेदकारी अर्थात् संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना । १८. कलहकरण=आक्रोश आदि रूप कलह करना ।
१९. सूर्यप्रमाणभोजित्व = दिन भर कुछ न कुछ खाते-पीते रहना । २०. एषणाऽसमितत्व = एषणा समिति का उचित ध्यान न रखना ।
इक्कीस शबल दोष
१.
हत कर्म - हस्त मैथुन करना ।
२.
मैथुन = स्त्री स्पर्श आदि रूप मैथुन करना ।
३. रात्रि भोजन = रात्रि में भोजन लेना और करना ।
४. आधाकर्म = साधु के निमित्त से बनाया गया भोजन लेना ।
५.
सागारिकपिण्ड = शय्यातर अर्थात् स्थानदाता का आहार लेना ।
६. औद्देशिक= साधु के या याचकों के निमित्त बनाया गया, क्रीत खरीदा हुआ, आहत = स्थान पर लाकर दिया हुआ, प्रामित्य = उधार लिया हुआ, आच्छिन्न = छीन कर लाया हुआ आहार लेना ।
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