Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 489
________________ ४५६ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण तीन गौरव (१) ऋद्धि गौरव-ऐश्वर्य का अभिमान, (२) रस गौरव-रसों का अभिमान, (३) सात गौरव-सुखों का अभिमान। 'गौरव' अभिमान से उत्तप्त हुए चित्त की एक विकृत स्थिति है। तीन शल्य (१) माया, (२) निदान-ऐहिक तथा पारलौकिक भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए धर्म का विनिमय, (३) मिथ्यादर्शन-आत्मा का तत्त्व के प्रति मिथ्यारूप दृष्टिकोण। शल्य काँटे या शस्त्र की नोंक को कहते हैं। जैसे वह पीड़ा देता है, उसी प्रकार साधक को ये शल्य भी निरन्तर उत्पीड़ित करते हैं। चार विकथा (१) स्त्री कथा-स्त्री के रूप, लावण्य आदि का वर्णन करना, (२) भक्तनाना प्रकार के भोजन की कथा, (३) देश कथा-नाना देशों के रहन-सहन आदि की कथा, (४) राजकथा-राजाओं के ऐश्वर्य तथा भोगविलास का वर्णन । चार संज्ञा (१) आहार संज्ञा, (२) भय संज्ञा, (३) मैथुन संज्ञा और (४) लोभ संज्ञा । संज्ञा का अर्थ है-आसक्ति और मूर्च्छना । पाँच व्रत और इन्द्रियार्थ अहिंसा आदि पाँच व्रत हैं। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-ये पाँच इन्द्रियों के विषय हैं। पाँच क्रियाएँ (१) कायिकी, (२) आधिकरणिकी-शस्त्रादि अधिकरण से सम्बन्धित, (३) प्राद्वेषिकी-द्वेष रूप, (४) पारितापनिकी, (५) प्राणातिपात-प्राणिहिंसा। सात पिण्ड और अवग्रह की प्रतिमाएँ पिण्ड का अर्थ आहार है। इससे सम्बन्धित प्रतिमाएँ पूर्वोक्ति तपोमार्गगति अध्ययन में वर्णित सात एषणाएँ हैं। अवग्रह (स्थान) सम्बन्धी सात अभिग्रह-संकल्प इस प्रकार हैं(१) मैं अमुक प्रकार के स्थान में रहूँगा, दूसरे में नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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