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३२-अध्ययन
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२. मार्दव-मृदु भाव रखना। जाति, कुल आदि का अहंकार न करना। ३. आर्जक-ऋजुभाव-सरलता रखना, माया न करना। ४. मुक्ति-निर्लोभता रखना, लोभ न करना। ५. तप-अनशन आदि बारह प्रकार का तप करना। ६. संयम-हिंसा आदि आश्रवों का निरोध करना। ७. सत्य-सत्य भाषण करना, झूठ न बोलना । ८. शौच-संयम में दूषण न लगाना, संयम के प्रति निरुपलेपता-पवित्रता
रखना। ९. आकिंचन्य-परिग्रह न रखना।
१०. ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य का पालन करना । ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ
१. दर्शन प्रतिमा किसी भी प्रकार का राजाभियोग आदि आगार न रखकर शुद्ध, निरतिचार, विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करना। यह प्रतिमा व्रतरहित दर्शन श्रावक की होती है। इसमें मिथ्यात्वरूप कदाग्रह का त्याग मुख्य है। ‘सम्यग्दर्शनस्य शंकादिशल्यरहितस्य अणुव्रतादिगुणविकलस्य योऽभ्युपगमः । सा प्रतिमा प्रथमेति ।-अभयदेव, समवायांग वृत्ति । इस प्रतिमा का आराधन एक मास तक किया जाता है।
२. व्रत प्रतिमा-व्रती श्रावक सम्यक्त्व लाभ के बाद व्रतों की साधना करता है। पाँच अणुव्रत आदि व्रतों की प्रतिज्ञाओं को अच्छी तरह निभाता है, किन्तु सामायिक का यथा समय सम्यक् पालन नहीं कर पाता। यह प्रतिमा दो मास की होती है।
३. सामायिक प्रतिमा इस प्रतिमा में प्रात: और सायंकाल सामायिक व्रत की साधना निरतिचार पालन करने लगता है, समभाव दृढ़ हो जाता है, किन्तु पर्वदिनों में पौषधवत का सम्यक् पालन नहीं कर पाता। यह प्रतिमा तीन मास की होती है।
४. पोषध प्रतिमा-अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा आदि पर्व दिनों में आहार, शरीर संस्कार, अब्रह्मचर्य, और व्यापार का त्याग-इस प्रकार चतुर्विध त्यागरूप प्रतिपूर्ण पोषध व्रत का पालन करना, पोषध प्रतिमा है। यह प्रतिमा चार मास की होती है।
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