Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 475
________________ ४४२ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण श्रमण भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को महाव्रत के रूप में अलग से स्थान देकर प्रचलित मिथ्या भ्रमों एवं कुतर्कों का निराकरण किया। इसीलिए उन्हें सूत्रकृतांग (१ । ६ । २८) में 'से वारिया इत्थिसराइभत्तं'-अर्थात् स्त्री और रात्रिभोजन का निवारण करने वाला कहा है। काल की बदलती परिस्थिति में ऐसा करना आवश्यक हो गया था। अत: गणधर गौतम इसके लिए अपने युग को जड और वक्र कहकर समाधान प्रस्तुत करते हैं। इसका अर्थ यह है कि जडता तथा वक्रता के जीवन में ही क्रियाकाण्ड के नियमों तथा तत्सम्बन्धी व्याख्याओं का विस्तार होता है, सरल और प्राज्ञ जीवन में नहीं। गाथा १३–'अचेल' के दो अर्थ हैं—बिल्कुल ही वस्त्र न रखना, अथवा अल्प मूल्य वाले साधारण श्वेत वस्त्र रखता। 'अ' का अभाव अर्थ भी है, और अल्प भी। जैसे कि अनुदरा कन्या के प्रयोग में 'अनुदरा' का अर्थ 'बिना पेट की कन्या' नहीं; अपितु अल्प अर्थात् कृश उदर वाली कन्या है। विष्णुपुराण में भी जैन मुनियों के निर्वस्त्र और सवस्त्र-दोनों ही रूपों का उल्लेख है-'दिग्वाससामयं धर्मो, धर्मोऽयं बहुवाससाम्'-अंश ३, अध्याय १८, श्लोक १०. 'सान्तरोत्तर' में सान्तर और उत्तर-ये दो शब्द हैं। बृहवृत्तिकार शात्याचार्य सान्तर और उत्तर का क्रमश: वर्ण आदि से विशिष्ट सुन्दर और बहुमूल्य अर्थ करते हैं। ओघनियुक्ति-वृत्ति, कल्प सूत्रचूर्णि और धर्म संग्रह आदि के अनुसार बाल, वृद्ध, ग्लान आदि के निमित्त भिक्षा के लिए वर्षा होते रहने पर भी भिक्षु को बाहर जाना होता है, तब अन्दर में सूती वस्त्र और ऊपर में बर्षाकल्प ऊनी वस्त्र-कम्बल आदि ओढ़कर जाना चाहिए, यह अर्थ होता है। प्रस्तुत में अचेल-सचेल की चर्चा है, अत: 'सान्तरोत्तर' का शब्दानुसारी प्रतिध्वनित अर्थ 'अन्तरीय'–अधोवस्त्र और 'उत्तरीय' ऊपर का वस्त्र भी लिया जा सकता है। गाथा १७-प्रवचनसारोद्धार (गा० ६७५) के अनुसार तणों के पाँच प्रकार हैं—(१) शाली-कमलशाली आदि विशिष्ट चावलों का पलाल, (२) बीहिकसाठी चावल आदि का पलाल, (३) कोद्रव-कोदो धान्य का पलाल, (४) रालक-कंगु अर्थात् कांगणी का पलाल, और (५) अरण्य तृण-श्यामाक अर्थात् समा चावल आदि का पलाल । उत्तराध्ययन में पांचवा 'कुश' को गिना है। गाथा ८९-उक्त अन्तिम गाथा के उत्तरार्ध का अधिकतर टीकाकार यह अर्थ करते हैं कि 'परिषद् के द्वारा स्तुति किए गए भगवान् केशी और गौतम प्रसन्न हों।' लगता है, यह अर्थ अध्ययन के रचनाकार की दृष्टि से है । यह संभव भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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