Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 481
________________ ४४८ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण गाथा १०-काल का लक्षण वर्तना है। जीव और अजीव सभी द्रव्यों में जो परिणमन होता है उसका उपादान स्वयं वे द्रव्य होते हैं और उनका निमित्त कारण काल को माना है। काल के अपने परिणमन में भी स्वयं काल ही निमित्त काल द्रव्य है, अस्तिकाय नहीं है, चूंकि वह एक समय रूप है, प्रदेशों का समूह रूप नहीं है। भगवती सूत्र (१३ । १४) में काल को जीव-अजीव की पर्याय कहा है। काल के समय (अविभाज्य रूप सर्वाधिक सूक्ष्म अंश) अनन्त हैं। 'सोऽनन्तसमय:'-तत्त्वार्थ ५ । ४० । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दिन, रात्रि आदिरूप व्यवहार काल मनुष्य-क्षेत्र (ढाईद्वीप) प्रमाण है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार काल लोकव्यापी तथा अणुरूप हैं। रत्नों की राशि के रूप में लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु स्थित है। गाथा ३२, ३३-कर्मों के आश्रव को रोकना संवररूप चारित्र है। कर्मों के पूर्वबद्ध चय को तप से रिक्त करना, क्षय करना निर्जरारूप चारित्र है। प्रस्तुत अध्ययन में ही चारित्र की उक्त दोनों व्याख्याएँ हैं। एक है 'चयरित्तकरं चारित्तं'-(गाथा ३३), और दूसरी है-चरित्तेण नि गिणहाइ (गाथा ३५)। अन्तिम शुद्धि तपरूप चारित्र से ही होती है। चारित्र के पाँच भेद हैं (१) सामायिक-सम होना, रागद्वेष से रहित वीतराग भाव का होना, सर्व-सावध विरतिरूप सामायिक चारित्र है। यद्यपि सभी चारित्र सामान्यतया सामायिक चारित्र ही होते हैं। जो भेद है, वह विशेष क्रिया काण्डों तथा विभिन्न स्तरों को लेकर है। इत्वरिक-अल्प काल का सामायिक चारित्र भगवान् ऋषभ और महावीर के शासन में है। यावत्कथिक अर्थात् यावज्जीवन रूप अन्य २२ तीर्थंकरों के शासन में होता है। (२) छेदोपस्थापनीय सातिचार और निरतिचार के भेद से यह दो प्रकार का है। दोषविशेष लगने पर दीक्षा का छेद करना, सातिचार है। और प्रथम लिए हुए सामायिक चारित्र का अमुक समय बाद बिना दोष के भी आवश्यक छेद कर देना, निरतिचार है। बड़ी दीक्षा के रूप में जो महाव्रतारोपण है, वह निरतिचार है। वह प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में ही होता है। (३) परीहारविशद्धि यह एक विशिष्ट तप:साधना है, जो नौ साध मिलकर करते हैं। इसका कालमान १८ मास है। प्रथम छह मास में चार साधु ग्रीष्म में उपवास से लेकर तेला तक, शिशिर में बेला से लेकर चोला तक, और वर्षा में तेला से लेकर पंचौला तक तप करते हैं। पारणा आयंबिल से किया जाता है। चार साधु सेवा करते हैं। एक वाचनाचार्य (निर्देशक) होता है। छह महीने बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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