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सू० २२ - परियट्टणाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
परियट्टणाए णं वंजणाई जणयइ, वंजणलद्धिं च उप्पाएइ ||
सू० २३ - अणुप्पेहाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ घणियबन्धण - बद्धाओ सिढिलबन्धणबद्धाओ पकरेइ । दीहकालडिइयाओ हस्स - कालडिइयाओ पकरेइ । तिव्वाणुभावाओ मन्दाणुभावाओ पकरेइ। बहुपसग्गाओ अप्पसग्गाओ पकरेइ । आउयं च णं कम्मं सिय बन्धइ, सिय नो बन्धइ । असायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ | अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरन्तं संसारकन्तारं खिप्पामेव वीइवयइ ||
सू० २४- धम्मकहाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ । धम्मकहाए णं पवयणं पभावेड़ । पवयणपभावे णं जीवे आगमिसस्स भद्दत्ताए कम्मं निबन्धइ ॥
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उत्तराध्ययन सूत्र
भन्ते ! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
परावर्तना से अर्थात् पठित पाठ के पुनरावर्तन से व्यंजन (शब्द पाठ) स्थिर होता है । और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजन - लब्धि को प्राप्त होता है ।
भन्ते ! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
अनुप्रेक्षा से - सूत्रार्थ के चिन्तन मनन से जीव आयुष् कर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल करता है । उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता है । उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है । बहुकर्म प्रदेशों को अल्प- प्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष् कर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता है । असातवेदनीय कर्म का पुन: पुन: उपचय नहीं करता है । जो संसार अटवी अनादि एवं अनवदग्र- अनन्त है, दीर्घ मार्ग से युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त (अवयव) हैं, उसे शीघ्र ही पार करता है भन्ते ! धर्मकथा ( धर्मोपदेश) से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
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धर्म कथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन (शासन एवं सिद्धान्त) की प्रभावना करता है । प्रवचन की प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले कर्मों का करता है।
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