Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Chandanashreeji
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 439
________________ ४०६ उत्तराध्ययन सूत्र १७७. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए जलयराणं तु अन्तरं ।। १७८. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वा वि विहाणाइं सहस्ससो।। जलचर के शरीर को छोड़कर पुन: जलचर के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। स्थलचर प्रस स्थलचर जीवों के दो भेद हैंचतुष्पद और परिसर्प। चतुष्पद चार प्रकार के हैं, उनको मुझसे सुनो। एकखुर-अश्व आदि, द्विखुरबैल आदि, गण्डीपद-हाथी आदि, और सनखपद-सिंह आदि। १७९. चउप्पया य परिसप्पा दुविहा थलयरा भवे। चउप्पया चउविहा ते मे कित्तयओ सुण॥ १८०. एगखुरा दुखुरा चेव गण्डीपय-सणप्पया। हयमाइ-गोणमाइ गयमाइ-सीहमाइणो।। १८१. भुओरगपरिसप्पा य परिसप्पा दुविहा भवे। गोहाई अहिमाई य एक्केक्का ऽणेगहा भवे ॥ १८२. लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया। एत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं॥ १८३. संतइं पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया व य॥ परिसर्प दो प्रकार के हैंभुजपरिसर्प-गोह आदि, उर:परिसर्पसांप आदि। इन दोनों के अनेक प्रकार वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। इस निरूपण के बाद चार प्रकार से स्थलचर जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं। स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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