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२०-अध्ययन
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से बड़ी सतर्कता के साथ एक-एक दाना चुगता है, इसी प्रकार एषणा के दोषों की शंका को ध्यान में रखते हुए भिक्षु भी थोड़ा-से-थोड़ा आहार अनेक घरों से ग्रहण करता है । महाभारत के शान्ति पर्व (२४३-२४) में भी कापोती वृत्ति का उल्लेख है।
गाथा ४६-संसार रूपी अटवी के नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-ये चार अन्त होते हैं, अत: आगमों में संसार को 'चाउरंत' कहा गया है। ___ गाथा ४९-आगमानुसार नरक और स्वर्ग में बादर अग्नि के जीव नहीं होते हैं। प्रस्तुत में जो हुताशन-अग्नि का उल्लेख है, वह अग्नि जैसे जलते हुए प्रकाशमान अचित्त पुद्गलों के लिए है। अतएव बृहदवृत्तिकार ने लिखा है—'तत्र च बादराग्नेरभावात् पृथिव्या एव तथाविध: स्पर्श इति गम्यते।'
गाथा ५४-'कोलसणएहिं' में 'कोलशनक' शब्द को एक मानकर शान्त्याचार्य ने उसका अर्थ शूकर किया है। किन्तु 'कोल' शब्द अकेला ही शूकर का वाचक है। अत: आगे के 'शुनक' शब्द का शब्दानुसारी 'कुत्ता' अर्थ क्यों न लिया जाए।
अध्ययन २० गाथा ७–प्राचीन युग में सर्वप्रथम देव एवं पूज्य गुरुजनों को उनके चारों ओर घूमकर प्रदक्षिणा की जाती थी। दाहिनी ओर से घूमना शुरू करते थे, जैसाकि कहा है-'आयाहिणं पयाहिणं करेइ।' प्रदक्षिणा के अनन्तर वन्दन किया जाता है। प्रस्तुत में वन्दन पहले है. प्रदक्षिणा बाद में है। सम्भव है, यह अन्तर छन्द रचना की विवशता के कारण केवल गाथा के शब्दों में ही हो, विधि में नहीं। वैसे शान्त्याचार्य ने समाधान किया है कि पूज्य आत्माओं को देखते ही उन्हें प्रणाम करना आवश्यक है। इसलिए यहाँ प्रदक्षिणा का उल्लेख बाद में है।
गाथा ९-बृहद्वृत्ति के अनुसार नाथ का अर्थ 'योगक्षेमविधाता' है। अप्राप्त की प्राप्ति योग है, और प्राप्त का संरक्षण क्षेम है।
गाथा २२-शान्त्याचार्य ने 'सत्थकुसल' के दो संस्कृत रूपान्तर किए हैंशास्त्रकुशल (आयुर्वेद शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान्) और शस्त्रकुशल (शल्यक्रिया अर्थात् दूषित अंगों की चीर-फाड़ आदि क्रिया में निपुण)।
__गाथा २३-चतुष्पाद चिकित्सा का उल्लेख स्थानांग सूत्र में भी आता है । 'चउव्विहा तिगिच्छा पन्नत्ता, तंजहा-बिज्मो, ओसधाई, आउरे, परिचारते।'
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