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२९-सम्यक्त्व-पराक्रम
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सू० २५-सुयस्स आराहणयाए . णं भन्ते ! श्रुत की आराधना से जीव
भन्ते ! जीवे किं जणयइ? को क्या प्राप्त होता है?
सुयस्स आराहणयाएणं अन्नाणं श्रुत की आराधना से जीव अज्ञान खबेइ न य संकिलिस्सइ॥
का क्षय करता है और क्लेश को प्राप्त
नहीं होता है। सू० २६-एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं भन्ते ! मन को एकाग्रता में भन्ते! जीवे किं जणयइ? संनिवेशन-स्थापित करने से जीव को
क्या प्राप्त होता है? एगग्गमणसंनिवेसणाए णं चित्त- मन को एकाग्रता में स्थापित करने निरोहं करेइ ।।
से चित्त का निरोध होता है। सू० २७-संजमेणं भन्ते! जीवे किं भन्ते ! संयम से जीव को क्या जणयइ?
प्राप्त होता है? संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ ।। संयम से अनहस्कत्व अर्थात्
अनास्नवत्व को-आश्रव के निरोध
को प्राप्त होता है। सू० २८-तवेणं भन्ते! जीवे किं । भन्ते ! तप से जीव को क्या प्राप्त जणयइ?
होता है? तवेणं वोदाणं जणयइ॥
तप से जीव पूर्व संचित कर्मों का क्षय करके व्यवदान-विशुद्धि को
प्राप्त होता है। सू० २९-वोदाणेणं भन्ते! जीवे किं भन्ते ! व्यवदान से जीव को क्या जणयइ?
प्राप्त होता है ? वोदाणेणं अकिरियं जणयइ। व्यवदान से जीव को अक्रिया (मन अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा वचन, काय की प्रवृत्ति की निवृत्ति) सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वा- प्राप्त होती है। अक्रिय होने के बाद एइ, सव्वदुक्खाणमन्तं करेइ॥ वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त
होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता
है।
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