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३२-प्रमाद-स्थान
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२८. रूवाणुवाएण परिग्गहेण रूप में अनुपात (अनुराग) और
उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। परिग्रह (ममत्त्व) के कारण रूप के वए विओगे य कहिं सुहं से? उत्पादन में, संरक्षण में, और सन्नियोग संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥ (व्यापार) में तथा त्यय और वियोग में
उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में
भी तृप्ति नहीं मिलती। २९. रूवे अतित्ते य परिग्गहे य रूप में अतृप्त तथा परिग्रह में
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि। आसक्त और उपसक्त (अत्यन्त आसक्त) अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स व्यक्ति सन्तोष को प्राप्त नहीं होता। लोभाविले आययई अदत्तं ।।। वह असंतोष के दोष से दुःखी एवं
लोभ से आविल (कलुषित, व्याकुल)
व्यक्ति दूसरों की वस्तुएँ चुराता है। ३०. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रूप और परिग्रह में अतृप्त तथा
रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य। तृष्णा से अभिभूत होकर वह दूसरों की माया-मुसं वडा लोभदोसा वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ तत्थाऽवि दुक्खा न विमुच्चई से । के दोष से उसका कपट और झूठ
बढ़ता है। परन्तु कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त
नहीं होता है। ३१. मोसस्स पच्छा य पुरत्यओ य झूठ बोलने के पहले, उसके
पओगकाले य दुही दुरन्ते। पश्चात् और बोलने के समय में भी एवं अदत्ताणि समाययन्तो वह दु:खी होता है। उसका अन्त भी रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। दुःखरूप होता है। इस प्रकार रूप से
अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला
दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। ३२. रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं इस प्रकार रूप में अनुरक्त मनुष्य
कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। को कहाँ, कब और कितना सुख तत्थोवभोगे व किलेस दुक्खं होगा? जिसे पाने के लिए मनुष्य दुःख निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ उठाता है, उसके उपभोग में भी क्लेश
और दुःख ही होता है।
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