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७-उर श्रीय
११. जहा कागिणिए हेडं
सहस्सं हारए नरो। अपत्थं अम्बगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए॥
१२. एवं माणुस्सगा कामा
देवकामाण अन्तिए। सहस्सगुणिया भुज्जो आउं कामा य दिग्विया॥
एक क्षुद्र काकिणी के लिए जैसे मूढ मनुष्य हजार (कार्षापण) गँवा देता है और राजा एक अपथ्य आम्रफल खाकर बदले में जैसे राज्य को खो देता है।
इसी प्रकार देवताओं के कामभोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग नगण्य हैं। मनुष्य की अपेक्षा देवताओं की आय और कामभोग हजार गुणा अधिक हैं।
“प्रज्ञावान् साधक की देवलोक में अनेक युत वर्ष (असंख्य काल) की स्थिति होती है"-यह जानकर भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष से भी कम आयुकाल में उन दिव्य सुखों को गँवा
१३. अणेगवासानउया
जा सा पन्नवओ ठिई। जाणि जीयन्ति दुम्मेहा ऊणे वाससयाउए।
१४. जहा य तिन्नि वाणिया
मूलं घेत्तूण निग्गया। एगोऽत्थ लहई लाहं एगो मूलेण आगओ।
तीन वणिक् मूल धन लेकर व्यापार को निकले। उनमें से एक अतिरिक्त लाभ प्राप्त करता है। एक सिर्फ मूल ही लेकर लौट आता है।
और एक मूल भी गँवाकर लौट आता है। यह व्यवहार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना चाहिए।
१५. एगो मूलं पि हारित्ता
आगओ तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह॥
१६. माणुसत्तं भवे मूलं
लाभो देवगई भवे। मूलच्छेएण जीवाणं नरग-तिरिक्खत्तणं धुवं ।
मनुष्यत्व मूल धन है। देवगति लाभरूप है। मूल के नाश से जीवों को निश्चय ही नरक और तिर्यंच गति प्राप्त होती है।
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