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२० - महानिर्ग्रन्थीय
५३. एवुग्गदन्ते वि महातवोधणे महामणी महापइने महायसे । महानियण्ठिज्जमिणं महासुयं से काहए महया वित्थरेणं ॥
५४. तुट्ठो य सेणिओ राया इणमुदाहु कयंजली । अणात्तं
जहाभूयं
मे उवदंसियं ॥
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५५. तुज्झं सुलद्धं खु मणुस्सजम्मं लाभा सुद्धा य तुमे महेसी तुम्भे सणाहा य सबन्धवा य जं भे ठिया मग्गे जिणुत्तमाणं ॥
५६. तं सि नाहो अणाहाणं सव्वभूयाण संजया ! खामेमि ते महाभाग ! इच्छामि अणुसासिउं ॥
५७. पुच्छिऊण मए तुब्भं झाणविग्घो उ जो कओ । निमन्तिओ य भोगेहिं तं सव्वं मरिसेहि मे ॥ ५८. एवं थुणित्ताण स रायसीहो अणगारसीहं परमाइ भत्तिए । सओरोहो य सपरियणो य धम्मारत्तो विमलेण चेयसा ॥
५९. ऊससिय रोमकूवो काऊण य पयाहिणं । अभिवन्दिऊण सिरसा अइयाओ नराहिवो ॥
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इस प्रकार उग्र- दान्त, महान् तपोधन, महा-प्रतिज्ञ, महान् - यशस्वी उस महामुनि ने इस महा-निर्ग्रन्थीय महाश्रुत को महान् विस्तार से कहा ।
राजा श्रेणिक संतुष्ट हुआ और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला“भगवन् ! अनाथ का यथार्थ स्वरूप आपने मुझे ठीक तरह समझाया है ।” राजा श्रेणिक
- " हे महर्षि ! तुम्हारा मनुष्यजन्म सफल है, तुम्हारी उपलब्धियाँ सफल हैं, तुम सच्चे सनाथ और सबान्धव हो, क्योंकि तुम जिनेश्वर के मार्ग में स्थित हो ।”
- " हे संयत ! तुम अनाथों के नाथ हो, तुम सब जीवों के नाथ हो । हे महाभाग ! मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ । मैं तुम से अनुशासित होने की इच्छा रखता हूँ ।”
- " मैंने तुमसे प्रश्न कर जो ध्यान में विघ्न किया और भोगों के लिए निमन्त्रण दिया, उन सब के लिए मुझे क्षमा करें ।”
इस प्रकार राजसिंह श्रेणिक राजा अनगार - सिंह मुनि की परम भक्ति से स्तुति कर अन्तःपुर ( रानियों) तथा अन्य परिजनों के साथ धर्म में अनुरक्त हो
गया।
राजा के रोमकूप आनन्द से उच्छ्वसित — उल्लसित हो रहे थे 1 वह मुनि की प्रदक्षिणा और सिर से वन्दना करके लौट गया ।
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