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७. छिन्नं सरं भोममन्तलिक्खं जो छिन्न (वस्त्रादि की छिद्र-विद्या)
सुमिणं लक्खणदण्डवत्थुविज्ज। स्वर-विद्या, भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, अंगवियारं सरस्स विजयं लक्षण, दण्ड, वास्तु-विद्या, अंगविकार जो विज्जाहि न जीवइ स भिक्खू॥ और स्वर-विज्ञान (पशु-पक्षी आदि की
बोली का ज्ञान)-इन विद्याओं से जो
नहीं जीता है, वह भिक्षु है। ८. मन्तं मूलं विविहं वेज्जचिन्तं जो रोगादि से पीड़ित होने पर भी
वमणविरेयणधूमणेत्त-सिणाणं। मंत्र, मूल-जड़ी-बूटी आदि, आयुर्वेद आउरे सरणं तिगिच्छियं च संबंधी विचारणा, वमन, विरेचन, धूम्रतंपरिन्नायउपरिव्वए सभिक्खू॥ पान की नली, स्नान, स्वजनों की शरण
और चिकित्सा का त्याग कर अप्रतिबद्ध भाव से विचरण करता है,
वह भिक्षु है। ९. खत्तियगणउग्गरायपुत्ता
क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण, माहणभोइयविविहा य सिप्पिणो। भोगिक (सामन्त आदि) और सभी नो तेसिं वयइ सिलोगपूयं प्रकार के शिल्पियों की पूजा तथा तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ प्रशंसा में जो कभी कुछ भी नहीं कहता
है, किन्तु इसे हेय जानकर विचरता है,
वह भिक्षु है। १०. गिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा जो व्यक्ति प्रबजित होने के बाद
अप्पव्वइएण व संथुया हविज्जा। परिचित हुए हों, अथवा जो प्रबजित तेसिं इहलोइयफलट्ठा होने से पहले के परिचित हों, उनके जो संथवं न करेइ स भिक्खू॥ साथ इस लोक के फल की प्राप्ति हेतु
जो संस्तव (मेल-जोल) नहीं करता है,
वह भिक्षु है। ११. सयणासण-पाण-भोयणं
शयन, आसन, पान, भोजन और विविहं खाइमं साइमं परेसिं। विविध प्रकार के खाद्य एवं स्वाद्य कोई अदए पडिसेहिए नियण्ठे स्वयं न दे, अथवा माँगने पर भी इन्कार जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू॥ कर दे तो जो निम्रन्थ उनके प्रति द्वेष
नहीं रखता है, वह भिक्षु है ।
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