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३८. इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा ! तमेगचित्तो निहुओ सुणेहिं । नियण्ठधम्मं लहियाण वी जहा सीयन्ति एगे बहुकायरा नरा ॥
३९. जो पव्वइत्ताण महव्वयाई सम्मं नो फासयई पमाया । अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे न मूलओ छिन्दइ बन्धणं से ||
४०. आउत्तया जस्स न अस्थि काइ इरियाए भासाए तहेसणाए । आयाण-निक्खेव-दुगुंछणाए न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ॥
४१. चिरं पि से मुण्डरुई भवित्ता अथिरव्व तव-नियमेहि भट्टे । चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता न पारए होइ हु संपराए ।
४२. पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे अयन्तिए कूडकहावणे वा । राढामणी वेरुलियप्पगासे अमहग्घए होइ य जाणएसु ।।
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उत्तराध्ययन सूत्र
- “ राजन् ! यह एक और भी अनाथता है । शान्त एवं एकाग्रचित्त होकर उसे सुनो ! बहुत से ऐसे कायर व्यक्ति होते हैं, जो निर्ग्रन्थ धर्म को पाकर भी खिन्न हो जाते हैं— स्वीकृत अनगार धर्म का सोत्साह पालन नहीं कर पाते हैं । "
-" जो महाव्रतों को स्वीकार कर प्रमाद के कारण उनका सम्यक् पालन नहीं करता है, आत्मा का निग्रह नहीं करता है, रसों में आसक्त है, वह मूल से राग-द्वेष-रूप बन्धनों का उच्छेद नहीं कर सकता है । "
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– “ जिसकी ईर्या, भाषा, एषणा और आदान-निक्षेप में और उच्चारप्रस्रवण के परिष्ठापन में आयुक्ततासजगता नहीं है, वह उस मार्ग का अनुगमन नहीं कर सकता, जो वीरयात है— अर्थात् जिस पर वीर पुरुष चले हैं ।”
- " जो अहिंसादि व्रतों में अस्थिर है, तप और नियमों से भ्रष्ट है—वह चिर काल तक मुण्डरुचि ( और कुछ साधना न कर केवल सिर मुंडा देने वाला भिक्षु) रहकर और आत्मा को कष्ट देकर भी वह संसार से पार नहीं हो सकता । "
" जो पोली (खाली) मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे - सिक्के की तरह अयन्त्रित — अप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकने वाली तुच्छ राढामणिकाचमणि है, वह जानने वाले परीक्षकों की दृष्टि में मूल्यहीन है ।”
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