Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम-प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य हुआ है, वह अभूतपूर्व तथा मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है। हम बत्तीस आगमों का पाठान्तर शब्दसूची तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सुसंपादित मूलपाठ प्रकाशित कर चुके हैं। उसके साथ-साथ आगम-ग्रंथों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद प्राचीनतम व्याख्या-सामग्री के आधार पर प्रस्तुत हुआ है। उसमें सूक्ष्म ऊहापोह के साथ विस्तृत मौलिक टिप्पण तथा अनेक परिशिष्टों से मंडित संस्करणों को भी सम्मिलित किया गया है। इस श्रृंखला में दसवेआलियं, उत्तराध्ययन, सूयगडो, ठाणं, नंदी, समवाओ आदि अनेक आगम ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं और विशाल ग्रंथ भगवई के चार खंड प्रकाशित होकर जनता के सामने आ चुके हैं। भाष्य लिखने की परम्परा बहुत प्राचीन रही है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने संस्कृत में 'आयारो' का भाष्य लिखकर भाष्यजगत् में एक नूतन कार्य किया है। वह कार्य भाष्य परम्परा को अक्षुण्ण बनाने का श्रमसाध्य प्रयत्न है। आचारांग भी मूलपाठसहित हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुका है। __ प्रस्तुत ग्रंथ 'बृहत्कल्पभाष्यम्' आगम व्याख्या साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है। छेदसूत्रों में यह बृहत्काय ग्रंथ है। इसमें ६४९० गाथाएं गुंफित हैं। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ के नेतृत्व में आगमसंपादन का भगीरथ कार्य हो रहा है। आगम साहित्य के इस महान् अभिक्रम में आगम मनीषी मुनिश्री दुलहराजजी प्रारंभ से ही जुड़े रहे हैं। वे श्रद्धेय आचार्यश्री महाप्रज्ञ के अंतेवासी बहुश्रुत संत हैं। उन्होंने इस विशाल ग्रंथ का संपादन एवं अनुवाद किया है। मुनिश्री ने इस ग्रंथ की निष्पत्ति में जो श्रम किया है वह ग्रंथ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा। इससे पूर्व मुनिश्री द्वारा संपादित/अनूदित सानुवाद व्यवहारभाष्य भी प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत ग्रंथ की विशालता देखते हुए इसे दो खण्डों में विभक्त किया है। पहले खण्ड में संपादकीय, भूमिका तथा पीठिका सहित प्रथम दो उद्देशक समाविष्ट हैं। दूसरे खण्ड में तीसरे उद्देशक से छट्ठा उद्देशक तथा चार परिशिष्ट संलग्न हैं। इस ग्रंथ की भूमिका महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी ने अपने बहुमूल्य समय का नियोजन कर. लिखी है। संपादन में मुनि राजेन्द्रकुमारजी, मुनि जितेन्द्रकुमारजी सहयोगी रहे हैं। उन्होंने इसे सुसज्जित करने में अनवरत श्रम किया है। इसकी कंपोजिंग में सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट के श्रीकिशन जैन एवं श्रीप्रमोद प्रसाद का योग रहा है। ऐसे सुसम्पादित आगम ग्रंथ को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्व भारती को प्राप्त हुआ है। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वज्जनों की दृष्टि में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। १ नवम्बर २००७ उदयपुर (राज.) सुरेन्द्र चोरड़िया अध्यक्ष, जैन विश्व भारती, लाडनूं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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