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नंदी
इस श्रुतपुरुष की स्थापना में चूलिका सूत्रों का कोई उल्लेख नहीं है । अंग, उपांग, मूल और छेद इस वर्गीकरण के बहुत समय पश्चात् नंदी और अनुयोगद्वार का चूलिका सूत्र के रूप में उल्लेख किया गया ।
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चूलिका का एक अर्थ परिशिष्ट है। नंदी और अनुयोगद्वार ये आगम अंग और उपांग श्रुत के लिए परिशिष्ट का काम करते हैं । प्रत्येक आगम के साथ ज्ञान मीमांसा और व्याख्या का संबंध जुड़ा हुआ है । नंदी ज्ञान मीमांसा का सूत्र है और अनुयोगद्वार व्याख्या सूत्र । इसीलिए दोनों आगमों को प्रकरण ग्रंथों, उत्कालिक सूत्रों तथा प्रकीर्ण ग्रंथों की सूची से पृथक् कर चूलिका सूत्र के रूप में स्थापित किया गया । यह स्थापना कब और किसने की यह अभी अन्वेषणीय है । इतना निर्विवाद है कि आगम का प्राचीन विभाग अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य ही है । प्रस्तुत आगम इसका स्वयंभू साक्ष्य है, मूल, छेद और चूलिका सूत्र इन सबका इन्हीं दो विभागों में समावेश होता है मूल, छेद और बूतिका सूत्र यह अर्वाचीन वर्गीकरण है। पूतिका सूत्र यह वर्गीकरण सबसे अर्वाचीन है ।
रचनाकाल और रचनाकार
प्रस्तुत सूत्र की रचना के साथ वाचनाओं का इतिहास जुड़ा हुआ है। नंदी की चूर्णि में स्कन्दिलाचार्य की वाचना या माथुरी वाचना का उल्लेख मिलता है । स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग अर्ध भारत में प्रचलित है ।" चूर्णिकार ने प्रश्न उपस्थित कियास्कन्दिलाचार्य का अनुयोग क्यों प्रचलित है ? और उसका समाधान वाचना के उल्लेख पूर्वक किया कि बारह वर्षीय भयंकर दुर्भिक्ष हुआ । उस अवधि में आहार की सम्यग् उपलब्धि न होने के कारण मुनिजन श्रुत का ग्रहण, गुणन और अनुप्रेक्षा नहीं कर सके । फलस्वरूप श्रुत नष्ट हो गया। बारह वर्षों के बाद सुभिक्ष होने पर मथुरा में साधु संघ का बड़ा सम्मेलन हुआ, उसमें स्कन्दिलाचार्य प्रमुख थे । सम्मेलन में भाग लेने वाले साधुओं में जो श्रुतधर साधु बचे थे और उनकी स्मृति में जितना श्रुत बचा था उसे संकलित कर कालिक श्रुत ( अंगप्रविष्ट श्रुत) का संकलन किया गया, उस संकलन को वाचना कहा जाता है । यह वाचना मथुरा में हुई इसीलिए इसका नाम माथुरी वाचना है और यह वाचना स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में हुई इसलिए उस वाचना में संकलित श्रुत को स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग कहा गया ।
दूसरा अभिमत यह है कि उस समय श्रुत नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर दिवंगत हो गए, केवल स्कन्दिलाचार्य बचे थे। उन्होंने मथुरा में साथ परिषद में अनुयोग का किया इसलिए उनका अनुयोग माधुरी याचना कहलाता है और यह अनुयोग स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग कहा जाता है। "
प्रस्तुत स्थविरावलि की चूर्णि में केवल स्कन्दिलाचार्य की वाचना का उल्लेख है। पांचवीं वाचना देवद्धिगणी ने की थी । वे प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता हैं । स्थविरावलि में उनका और उनके द्वारा कृत वाचना का उल्लेख न होना स्वाभाविक है ।
देवगण ने वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी (९८० या ९९३) में आगम की वाचना की थी। उस वाचना में जो आगम Sarafस्थित किए तथा जिन आगमों के बारे में जानकारी उपलब्ध थी, उनकी तालिका नंदी सूत्र में दी गई। इससे सहज ही इस freeर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि प्रस्तुत आगम की रचना वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी के दसवें दशक के आसपास हुई थी । चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत आगम के कर्ता दृष्यगणि के शिष्य देववाचक हैं । उनका अस्तित्वकाल वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी है । आगम का रचनाकाल विक्रम की छठी शताब्दी का दूसरा दशक है। आवश्यक निर्युक्ति में नंदीसूत्र का उल्लेख मिलता है।
१. नवता मंदी. १३ जेसि इमो अओगो पर अजावि अड्डमरहमि बहनपर निय ते बंदे बंदितारिए । २. (क) नंदी चूणि, पृ. ९ कह पुण तेसिं अणुओगो ? उष्यते वातसंवरिए महंते दुमका म अण्णणतो फिडिताणं गहण - गुणणाऽणुप्पेहाभावातो सुते विपण पुणो सुभिक्खकाले जाते मधुराए महा समुदए खंदिलायरियप्पमुहसंघेण 'जो जं संभरति' त्ति एवं संघडितं कालियतं जहा एवं मधुरा कहा माधुरा वायणा भण्णति । सा य खंदिलायरियसम्मयत्ति कार्तु तस्संतियो अनुभोगो मध्यति ।
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भतिजा सुम्मि
काले जे अण्णे पहाणा अणुओगधरा ते विणट्ठा, एगे खंदिलाय रिए संधरे, तेण मधुराए अणुओगो पुणो साधूणं पवत्तितोत्ति माधुरा वायणा भण्णति तस्संतितोय अणियोगो भण्णति ।
(ख) हारिभद्रया वृति, पृ. १७,१० (ग) मलयविरीया वृत्ति प. ५१
३. नन्दी चूर्ण. पृ. १३ : एवं कतमंगलोवयारो थेरावलिकमे यमिए अरिहे व इतेि सगणीसा साहजाहितद्वाणमाह ।
४. आवश्यकता.१.२
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