Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ किया नहीं जाता, वह सहज होता है। जैसे—स्वर्ग की विशुद्धि के लिए उसमें रहे हुए विकृत तत्वों को तपाते हैं, पात्र को नहीं, वैसे ही आत्मशुद्धि के लिए प्रात्म-विकारों को तपाया जाता है न कि शरीर को। शरीर तो आत्मा का साधन है, इसलिए वह तप जाता है, तपाया नहीं जाता / तप में पीड़ा हो सकती है किन्तु पीड़ा की अनुभूति नहीं होनी चाहिए। पीड़ा शरीर से सम्बन्धित है और अनुभूति आत्मा से / अतः तप करता हुश्रा भी साधक दु:खी न होकर पालादित होता है। आधुनिक युग के सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फायड ने 'दमन' को कटु आलोचना की है। उसने दमन को सभ्य समाज का सबसे बड़ा अभिशाप कहा है। उसका अभिमत है कि सभ्य संसार में जितनी भी विकृतियाँ हैं, मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ हैं, जितनी हत्यायें और आत्महत्यायें होती है, जितने लोग पागल और पाखण्डी बनते हैं, उसमें मुख्य कारण इच्छानों का दमन है। इच्छाओं के दमन से अन्तर्द्वन्द्व पैदा होता है, जिससे मानव रुग्ण, विक्षिप्त और भ्रष्ट बन जाता है। इसलिए फायड ने दमन का निषेध किया है। उसने उन्मुक्त भोग का उपाय बताया है। पर उसका सिद्धान्त भारतीय प्राचार में स्वीकृत नहीं है। वह तो उस दवा के समान है जो सामान्य रोग को मिटाकर भयंकर रोग पैदा करती है। यह सत्य है कि इच्छात्रों का दमन हानिकारक है पर उससे कहीं अधिक हानिकारक और घातक है उन्मुक्त भोग ! उन्मुक्त भोग का परिणाम अमेरिका आदि में बढ़ती हई विक्षिप्तता और आत्महत्याओं के रूप में देखा जा सकता है। भारतीय आचार पद्धतियों में इच्छाओं को मुक्ति के लिए दमन के स्थान पर विराग की आवश्यकता बताई है। विषयों के प्रति जितना राग होया उतनी ही इच्छाएं प्रबल होंगी! अन्तर्मानस में रही हों और फिर उनका दमन किया जाय तो हानि की संभावना है पर इच्छाएं निर्मूल स तो दमन का प्रश्न ही कहाँ ? और फिर उससे उत्पन्न होने वाली हानि को अवकाश कहाँ है ? फ्रायड विशुद्ध भौतिकवादी या देहमनोवादी थे। वे मानव को मूल प्रवृत्तियों और संवेगों का केबल पुतला मानते थे। उनके मन और मस्तिष्क में प्राध्यात्मिक उच्च स्वरूप की कल्पना नहीं थी, अतः वे यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि इच्छायें कभी समाप्त भी हो सकती हैं। उनका यह अभिमत था-मानव सागर में प्रतिपल प्रतिक्षण इच्छायें समुत्पन्न होती हैं और उन इच्छात्रों की तृप्ति आवश्यक है। पर भारतीय तत्वचिन्तकों ने यह उद्घोषणा की कि इच्छायें आत्मा का स्वरूप नहीं, विकृति स्वरूप हैं। वह मोहजनित हैं। इसलिए विराग से उन्हें नष्ट करना--- निर्मूल बना देना सुख-शान्ति की प्राप्ति के लिए हितकर है। ऐसा करने से ही सच्ची-स्वाभाविक शांति उत्पन्न हो सकती है। जैन आचारशास्त्र में दमन का भी यत्र-तत्र विधान हुआ है। "देहदुक्खं महाफलं" के स्वर अंकृत हुए हैं। संयम, संवर और निर्जरा का विधान है। वहाँ 'शम' और 'दम' दोनों पाये हैं। शम का सम्बन्ध विषयविराग से है और दम का सम्बन्ध इन्द्रिय-निग्रह से है। दूसरे शब्दों में शम और दम के स्थान पर मनोविजय और इन्द्रिय-विजय अथवा कषाय-विजय और इन्द्रिय-विजय शब्द भी व्यवहृत हुए हैं। स्वामी कुमार ने कात्तिकेयानुप्रेक्षा५७ में "मण-इंदियाण विजई" और "इंदिय-कसायत्रिजई" शब्दों का प्रयोग किया है। जिसका अर्थ है, मनोविजय और इन्द्रियनिग्रह अथवा 'कषायविजय' और 'इन्द्रियनिग्रह' निर्जरा के लिए आवश्यक है। दमन का विधान इन्द्रियों के लिए है और मनोगत विषय-वासना के लिए शम और विरक्ति पर बल दिया है। जब मन विषय-विरक्त हो जायेगा तो इच्छाएं स्वत: समाप्त हो जायेंगी। विषय के प्रति जो अनुरक्ति है, 57. कात्तिकेयानुप्रेक्षा-गाथा, 112-114 [25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org